ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 13
पव॑ते हर्य॒तो हरि॒रति॒ ह्वरां॑सि॒ रंह्या॑ । अ॒भ्यर्ष॑न्त्स्तो॒तृभ्यो॑ वी॒रव॒द्यश॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑ते । ह॒र्य॒तः । हरिः॑ । अति॑ । ह्वरां॑सि । रंह्या॑ । अ॒भि॒ऽअर्ष॑न् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । वी॒रऽव॑त् । यशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवते हर्यतो हरिरति ह्वरांसि रंह्या । अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो वीरवद्यश: ॥
स्वर रहित पद पाठपवते । हर्यतः । हरिः । अति । ह्वरांसि । रंह्या । अभिऽअर्षन् । स्तोतृऽभ्यः । वीरऽवत् । यशः ॥ ९.१०६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(हर्यतः) वह सर्वपूज्य परमात्मा (हरिः) जो सब, अवगुणों का हरण करनेवाला है, वह (रंह्या) ज्ञानरूप वेग से (ह्वरांसि) सब प्रकार की कुटिलताओं को (अति) अतिक्रमण करके (पवते) पवित्र करता है और (स्तोतृभ्यः) उपासकों को (वीरवत्, यशः) वीरसन्तान और यश (अभ्यर्षन्) देकर (पवते) पवित्र करता है ॥१३॥
भावार्थ - परमात्मा परमात्मपरायण लोगों को सरलभाव प्रदान करके उनकी कुटिलताओं को दूर करता है और उनको वीर सन्तान देकर लोक-परलोक में तेजस्वी बनाता है ॥१३॥
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