ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 14
अ॒या प॑वस्व देव॒युर्मधो॒र्धारा॑ असृक्षत । रेभ॑न्प॒वित्रं॒ पर्ये॑षि वि॒श्वत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒या । प॒व॒स्व॒ । दे॒व॒ऽयुः । मधोः॑ । धाराः॑ । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । रेभ॑न् । प॒वित्र॑म् । परि॑ । ए॒षि॒ । वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अया पवस्व देवयुर्मधोर्धारा असृक्षत । रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वत: ॥
स्वर रहित पद पाठअया । पवस्व । देवऽयुः । मधोः । धाराः । असृक्षत । रेभन् । पवित्रम् । परि । एषि । विश्वतः ॥ ९.१०६.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(देवयुः) वह परमात्मा विद्वानों को पवित्र करनेवाला है, (मधोः धारा) जिसकी आनन्दमय धारा (असृक्षत) अविर्भाव को प्राप्त की जाती है। (अया) उक्त धारा से हे परमात्मन् ! (पवस्व) आप हमको पवित्र करें, क्योंकि आप (विश्वतः) सब प्रकार से (पवित्रं) पवित्र अन्तःकरण को (रेभन्) शब्दायमान होते हुए (पर्येषि) प्राप्त होते हैं ॥१४॥
भावार्थ - परमात्मा का शब्दायमान होना इसी तात्पर्य्य से है कि वह अपने वेदरूपी शब्दब्रह्म द्वारा शब्दायमान है अर्थात् वेद के सदुपदेश द्वारा लोगों को बोधित करता है ॥१४॥ यह १०६ वाँ सूक्त और ११ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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