ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेध्यातिथिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ज॒नय॑न्रोच॒ना दि॒वो ज॒नय॑न्न॒प्सु सूर्य॑म् । वसा॑नो॒ गा अ॒पो हरि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठज॒नय॑न् । रो॒च॒ना । दि॒वः । ज॒नय॑न् । अ॒प्ऽसु । सूर्य॑म् । वसा॑नः । गाः । अ॒पः । हरिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जनयन्रोचना दिवो जनयन्नप्सु सूर्यम् । वसानो गा अपो हरि: ॥
स्वर रहित पद पाठजनयन् । रोचना । दिवः । जनयन् । अप्ऽसु । सूर्यम् । वसानः । गाः । अपः । हरिः ॥ ९.४२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मा को सूर्यादि के कर्त्तारूप से वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(हरिः) पापों का हरनेवाला वह परमात्मा (दिवः रोचना जनयन्) आकाश में प्रकाशित होनेवाले ग्रह-नक्षत्रादिकों को उत्पन्न करता हुआ और (अप्सु सूर्यम् जनयन्) अन्तरिक्ष में सूर्य को उत्पन्न करता हुआ (गाः अपः) भूमि तथा द्युलोक को (वसानः) अच्छादित करता हुआ सर्वत्र व्याप्त हो रहा है ॥१॥
भावार्थ - उसी परमात्मा ने सूर्य्यादि सब लोकों को उत्पन्न किया और उसी की सत्ता से स्थिर होकर सब लोक-लोकान्तर अपनी-अपनी स्थिति को लाभ कर रहे हैं ॥१॥
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