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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अयास्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुम्मतीगायत्री स्वरः - षड्जः

    असृ॑ग्रन्दे॒ववी॑त॒येऽत्या॑स॒: कृत्व्या॑ इव । क्षर॑न्तः पर्वता॒वृध॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असृ॑ग्रन् । दे॒वऽवी॑तये । अत्या॑सः । कृत्व्याः॑ऽइव । क्षर॑न्तः । प॒र्व॒त॒ऽवृधः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असृग्रन्देववीतयेऽत्यास: कृत्व्या इव । क्षरन्तः पर्वतावृध: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असृग्रन् । देवऽवीतये । अत्यासः । कृत्व्याःऽइव । क्षरन्तः । पर्वतऽवृधः ॥ ९.४६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    उस परमात्मा द्वारा (पर्वतावृधः) ज्ञान और कर्म से बढ़े हुए (क्षरन्तः) उपदेश को देनेवाले (कृत्व्याः इव) कर्मयोगियों के समान (अत्यासः) सर्वकर्मों में व्यापक विद्वान् (देववीतये) देवों के तृप्तिकारक यज्ञ के लिये (असृग्रन्) पैदा किये जाते हैं ॥१॥

    भावार्थ - परमात्मा ज्ञानरूप यज्ञ के लिये ज्ञानी-विज्ञानी पुरुषों को उत्पन्न करता है, इसलिये सब मनुष्यों को चाहिये कि वे कर्म्मयोगी तथा ज्ञानयोगी विद्वानों को बुलाकर अपने यज्ञादि कर्म्मों का आरम्भ किया करें ॥१॥

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