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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1001
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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यु꣣व꣡ꣳ हि स्थः स्वः꣢꣯पती꣣ इ꣡न्द्र꣢श्च सोम꣣ गो꣡प꣢ती । ई꣣शाना꣡ पि꣢प्यतं꣣ धि꣡यः꣢ ॥१००१॥

स्वर सहित पद पाठ

युव꣢म् । हि । स्थः । स्व꣢पती । स्वाऽ३रि꣡ति꣢ । प꣣तीइ꣡ति꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣣ । सोम । गो꣡प꣢꣯ती । गो । प꣣तीइ꣡ति꣢ । ई꣣शा꣢ना । पि꣣प्यतम् । धि꣡यः꣢꣯ ॥१००१॥


स्वर रहित मन्त्र

युवꣳ हि स्थः स्वःपती इन्द्रश्च सोम गोपती । ईशाना पिप्यतं धियः ॥१००१॥


स्वर रहित पद पाठ

युवम् । हि । स्थः । स्वपती । स्वाऽ३रिति । पतीइति । इन्द्रः । च । सोम । गोपती । गो । पतीइति । ईशाना । पिप्यतम् । धियः ॥१००१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1001
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (इन्द्रः च) = और परमैश्वर्यशाली परमात्मा (युवम्) = आप दोनों (हि) = निश्चय से (स्वः पती) = स्वर्ग के पति (स्थ:) = हो । जीवन सचमुच स्वर्ग बन जाता है । १. यदि जीवन में प्रभुस्मरण हो और २. यदि जीवन में सोम की रक्षा हो - वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित रक्खा जाए ।

हे सोम और इन्द्र ! आप (गोपती स्थ:) = वेदवाणियों के पति हो । प्रभु तो वेदवाणियों के पति हैं ही। सोमरक्षा हमें उन वेदवाणियों के समझने के योग्य बनाती है । (ईशाना) = ऐश्वर्यवाले होते हुए आप दोनों (धियः) = प्रज्ञानों व कर्मों को (पिप्यतम्) = हममें आप्यायित कीजिए। प्रभु की कृपा से और सोम की रक्षा से हमारा ज्ञान बढ़े और हमारे कर्म अधिकाधिक पवित्र हों।

प्रभु-स्मरण व सोमरक्षा में भी कार्यकारण भाव है । प्रभु-स्मरण हमें सोमरक्षा के योग्य बनाता है। ऐसा होने पर हम' असित'–विषयों से अबद्ध, ‘देवल'– दिव्य गुणोंवाले तथा ‘काश्यप’=ज्ञानी बनते हैं। हम स्वर्ग के पति होते हैं, वेदवाणियों के पति होते हैं और हमारे प्रज्ञान व कर्म आप्यायित होते हैं ।

भावार्थ -

हम प्रभु-स्मरण व सोमरक्षा द्वारा स्वर्ग के पति बनें ।

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