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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1015
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
त्री꣡णि꣢ त्रि꣣त꣢स्य꣣ धा꣡र꣢या पृ꣣ष्ठे꣡ष्वै꣢꣯रयद्र꣣यि꣢म् । मि꣡मी꣢ते अस्य꣣ यो꣡ज꣢ना꣣ वि꣢ सु꣣क्र꣡तुः꣢ ॥१०१५॥
स्वर सहित पद पाठत्रा꣡णि꣢꣯ । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । धा꣡र꣢꣯या । पृ꣣ष्ठे꣡षु꣢ । आ । ऐ꣣रयत् । रयि꣢म् । मि꣡मी꣢꣯ते । अ꣣स्य । यो꣡ज꣢ना । वि । सु꣣क्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ ॥१०१५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वैरयद्रयिम् । मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥१०१५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्राणि । त्रितस्य । धारया । पृष्ठेषु । आ । ऐरयत् । रयिम् । मिमीते । अस्य । योजना । वि । सुक्रतुः । सु । क्रतुः ॥१०१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1015
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - तीन का धारण
पदार्थ -
१. हे प्रभो ! (त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को तैरनेवाले अथवा दया, दम व दान को विस्तृत करनेवाले मुझ भक्त की (त्रीणि) = तीनों - इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि को (धारय) = धारण कीजिए । ये अस्थिर न हों। प्रत्याहार के द्वारा मैं इन्द्रियों को विषयों से पृथक् कर पाऊँ, मन को हृदय में धारण करूँइसे हृत्प्रतिष्ठ बना पाऊँ और बुद्धि को एकतत्त्व के ध्यान व चिन्तन में लगाऊँ । २. हे प्रभो ! आप (पृष्ठेषु) = [तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि – ऐ० ६.५ ] । तेज, ब्रह्मवर्चस् व श्री के विषय में (रयिं ऐरयत्) = ऐश्वर्य को प्राप्त कराइए । बाह्य धनों को महत्त्व न देकर मैं तेज, ब्रह्मवर्चस् व श्री [शोभा] को ही अपना धन समझँ । ३. (सुक्रतुः) = उत्तम प्रज्ञानों, सङ्कल्पों व कर्मोंवाला त्रित तो (अस्य) = इस प्रभु के (योजना) = सङ्गम के साधनों की ही (विमिमीते) = विशेषरूप से याचना करता है। [मिमीते=याचते– निरु० ३.१९.८]
नोट – यहाँ श्री भगवत्पदाचार्यजी ने इस प्रकार अर्थ किया है कि – रयिं पृष्ठेषु ऐरयत् – धन तो उन्हीं को प्राप्त कराइए जो पिछड़े हुए [backward] हैं। मैं तो आपकी प्राप्ति के साधनों को ही चाहूँगा । इस अर्थ में भी एक सौन्दर्य है ही।
भावार्थ -
मेरी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि स्थिर हों, मैं तेज, ब्रह्मवर्चस व श्री का धनी बनूँ, प्रभुसंगम – साधनों को प्राप्त होऊँ ।
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