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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1015
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    26

    त्री꣡णि꣢ त्रि꣣त꣢स्य꣣ धा꣡र꣢या पृ꣣ष्ठे꣡ष्वै꣢꣯रयद्र꣣यि꣢म् । मि꣡मी꣢ते अस्य꣣ यो꣡ज꣢ना꣣ वि꣢ सु꣣क्र꣡तुः꣢ ॥१०१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रा꣡णि꣢꣯ । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । धा꣡र꣢꣯या । पृ꣣ष्ठे꣡षु꣢ । आ । ऐ꣣रयत् । रयि꣢म् । मि꣡मी꣢꣯ते । अ꣣स्य । यो꣡ज꣢ना । वि । सु꣣क्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ ॥१०१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वैरयद्रयिम् । मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥१०१५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्राणि । त्रितस्य । धारया । पृष्ठेषु । आ । ऐरयत् । रयिम् । मिमीते । अस्य । योजना । वि । सुक्रतुः । सु । क्रतुः ॥१०१५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1015
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के कार्यों का वर्णन है।

    पदार्थ

    (त्रितस्य) सूर्य के (त्रीणि) तीन—पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक रूप पृष्ठ हैं। उन (पृष्ठेषु) तीनों पृष्ठों में, उस पवमान सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमेश्वर ने (रयिम्) ऐश्वर्य को (ऐरयत्) प्रेरित किया हुआ है। साथ ही (सुक्रतुः) उस सुकर्मा परमेश्वर ने (अस्य) इस सूर्य के (योजना) योजनों को, अर्थात् सूर्य कितने योजन विस्तारवाला है, इस माप को भी (वि मिमीते) मापा हुआ है ॥३॥

    भावार्थ

    भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक में सब जगह ही जगदीश्वर ने विशिष्ट ऐश्वर्य रखे हुए हैं। सब ग्रह, उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र, नीहारिका आदियों का बनानेवाला वह उनके परिमाण को भी ठीक-ठाक जानता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (त्रितस्य) स्तुति प्रार्थना उपासना को तानने वाले उपासक के (त्रीणि) तीन कर्मों को (धारय) धारण कर (पृष्ठेषु रयिम्-ऐरयत्) सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा इन्द्रियों के अन्दर*94 वीर्य*95 संयमबल को प्रेरित करता है (सुक्रतुः) सम्यक् कर्ता उपासक (अस्य) इस परमात्मा के (योजना) योग साधनों को (विमिमीते) विशेष सम्पादन जब करता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*94. “इन्द्रियाणि वै पृष्ठानि” [जै॰ १.२५४]।] [*95. “वीर्यं वै रयिः” [श॰ १३.४.२१३]।]

    विशेष

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    विषय

    तीन का धारण

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को तैरनेवाले अथवा दया, दम व दान को विस्तृत करनेवाले मुझ भक्त की (त्रीणि) = तीनों - इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि को (धारय) = धारण कीजिए । ये अस्थिर न हों। प्रत्याहार के द्वारा मैं इन्द्रियों को विषयों से पृथक् कर पाऊँ, मन को हृदय में धारण करूँइसे हृत्प्रतिष्ठ बना पाऊँ और बुद्धि को एकतत्त्व के ध्यान व चिन्तन में लगाऊँ । २. हे प्रभो ! आप (पृष्ठेषु) = [तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि – ऐ० ६.५ ] । तेज, ब्रह्मवर्चस् व श्री के विषय में (रयिं ऐरयत्) = ऐश्वर्य को प्राप्त कराइए । बाह्य धनों को महत्त्व न देकर मैं तेज, ब्रह्मवर्चस् व श्री [शोभा] को ही अपना धन समझँ । ३. (सुक्रतुः) = उत्तम प्रज्ञानों, सङ्कल्पों व कर्मोंवाला त्रित तो (अस्य) = इस प्रभु के (योजना) = सङ्गम के साधनों की ही (विमिमीते) = विशेषरूप से याचना करता है। [मिमीते=याचते– निरु० ३.१९.८]

    नोट – यहाँ श्री भगवत्पदाचार्यजी ने इस प्रकार अर्थ किया है कि – रयिं पृष्ठेषु ऐरयत् – धन तो उन्हीं को प्राप्त कराइए जो पिछड़े हुए [backward] हैं। मैं तो आपकी प्राप्ति के साधनों को ही चाहूँगा । इस अर्थ में भी एक सौन्दर्य है ही।

    भावार्थ

    मेरी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि स्थिर हों, मैं तेज, ब्रह्मवर्चस व श्री का धनी बनूँ, प्रभुसंगम – साधनों को प्राप्त होऊँ ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (त्रितस्य) साधक आत्मा की (धारया) धारणा से केवल (त्रीणि) तीन रसस्थान प्रकट होते हैं। और उन तीनों (पृष्ठेषु)रस के सेचक मुख्य केन्द्रों में आत्मा अपने (रयिम्) कान्तिमय ऐश्वर्य को (ऐरयत्) प्रकट करता है। (सुक्रतुः) उत्तम योगी साधक (अस्य) इस आत्मा के (योजना) तीनों योग द्वारा जागृत स्थानों को (वि मिमीते) विशेष रूप से जान लेता है और साध लेता है। तीन स्थान—१ ब्रह्मरन्ध्र, २ आज्ञाचक्र या सोमचक्र और ३ मणिपूर या स्वाधिष्ठान चक्र अथवा मूलाधार, हृदय और भ्रूमध्य।

    टिप्पणी

    ‘पृष्ठेष्वैरया रयिम्’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः कर्माणि वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (त्रितस्य) सूर्यस्य (त्रीणि) त्रीणि पृष्ठानि पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकाख्यानि सन्ति। तेषु (पृष्ठेषु) त्रिष्वपि पृष्ठेषु, स पवमानः सोमः जगत्स्रष्टा परमेश्वरः (रयिम्) ऐश्वर्यम् (ऐरयत्) प्रेरितवान् अस्ति। अपि च (सुक्रतुः) सुकर्मा स परमेश्वरः (अस्य) सूर्यस्य (योजना) योजनानि, कियद्विस्तीर्णः सूर्य इति मानानि अपि (वि मिमीते) विशेषेण इयत्तया परिच्छिनत्ति। [माङ् माने शब्दे च। जुहोत्यादिः] ॥३॥

    भावार्थः

    भूमावन्तरिक्षे दिवि च सर्वत्रैव जगदीश्वरेण विशिष्टान्यैश्वर्याणि निहितानि सन्ति। सर्वेषां ग्रहोपग्रहसूर्यनक्षत्रनीहारिकादीनां रचयिता स तत्परिमाणमपि यथार्थतया जानाति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०२।३। ‘पृ॒ष्ठेष्वे॑रया र॒यिम्’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A Yoga practising soul, through the steady abstraction of the mind, realises its three stations. In all these stations the soul displays its brilliant glory. A disciplined Yogi full well knows through Yoga these three stations of the soul.

    Translator Comment

    $ Three Stations (1) Brahm Randhra, ब्रह्म रन्ध्र (2) Ajna Chakra. आज्ञा चक्र A mystical Circle or diagram. (3) Manipura: The Navel.^OR ^(1) मूलाधारः a mystical circle above the organs of generation (2)हृदय Heart. (3) भ्रूमध्यः the space between the eyebrows.^A Yogi in Samadhi rivets his soul on these three places according to its will.

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    Meaning

    By three streams of the moving particles of matter, energy and mind does the triple master, Soma, move the dynamics of existence, and thus does the supreme yajaka order and accomplish his cosmic plan. (Rg. 9-102-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (त्रितस्य) સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનાને વિસ્તૃત કરનાર ઉપાસકનાં (त्रीणि) ત્રણ કર્મોને (धारय) ધારણ કરીને (पृष्ठेषु रयिम् ऐरयत्) સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઇન્દ્રિયોની અંદર વીર્ય-સંયમ બળને પ્રેરિત કરે છે. (सुक्रतुः) સમ્યક્કર્તા ઉપાસક (अस्य) એ પરમાત્માના (योजना) યોગ સાધનોને (विमिमीते) જ્યારે વિશેષ સંપાદન કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भूमी अंतरिक्ष व द्युलोकात सर्वत्र जगदीश्वराने विशिष्ट ऐश्वर्य ठेवलेले आहे. सर्व ग्रह, उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र, नीहारिका इत्यादींना बनविणारा तो त्यांचे परिणाम ही ठीक ठीक जाणतो. ॥३॥

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