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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1014
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
24
उ꣡प꣢ त्रि꣣त꣡स्य꣢ पा꣣ष्यो꣢३꣱र꣡भ꣢क्त꣣ य꣡द्गुहा꣢꣯ प꣣द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ स꣣प्त꣡ धाम꣢꣯भि꣣र꣡ध꣢ प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । पा꣣ष्योः꣢ । अ꣡भ꣢꣯क्त । यत् । गु꣡हा꣢꣯ । प꣡द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣प्त꣢ । धा꣡म꣢꣯भिः । अ꣡ध꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्रितस्य पाष्यो३रभक्त यद्गुहा पदम् । यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥१०१४॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । त्रितस्य । पाष्योः । अभक्त । यत् । गुहा । पदम् । यज्ञस्य । सप्त । धामभिः । अध । प्रियम् ॥१०१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1014
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
पदार्थ
(यत्) क्योंकि, वह पवमान सोम अर्थात् सर्वान्तर्यामी जगत्स्रष्टा परमेश्वर (पाष्योः) द्यावापृथिवी की (गुहा) गुफाओं में भी (त्रितस्य) पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ रूप तीन स्थानों में स्थित सूर्य के (पदम्) किरण-समूह को (उप अभक्त) पहुँचाता है, (अध) इस कारण (यज्ञस्य) शरीर में सङ्गत जीवात्मा के (सप्त धामभिः) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन सात धामों से (प्रियम्) उस प्रिय परमेश्वर की पूजा करो ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा की कैसी अद्भुत व्यवस्था है कि सूर्य की किरणें विभिन्न लोकों के भूगर्भ में भी पहुँचकर वहाँ अपने ताप से सुवर्ण आदि धातुओं को उत्पन्न कर देती हैं ॥२॥
पदार्थ
पदार्थ—(यत् पदं गुहा) जो सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा प्रापणीय पद हृदय गुहा में है (त्रितस्य पाष्योः) स्तुति प्रार्थना उपासना तीनों का विस्तार करने वाले योग के गतिक्रमों*92 अभ्यास और वैराग्य में (उप-अभक्त) सेवन करता है (यज्ञस्य सप्तधामभिः) ज्ञान यज्ञ के सात धामों सात छन्दों के द्वारा*93 (अध प्रियम्) अनन्तर प्रिय परमात्मा को प्राप्त होता है॥२॥
टिप्पणी
[*92. “पष गतौ” [चुरादि॰]।] [*93. “छन्दांसि वा अस्य सप्त धाम प्रियाणि” [शत॰ ९.२.३.४४]।]
विशेष
<br>
विषय
सप्तधाम
पदार्थ
(त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को जो तैर गया है [तीर्णस्य]; अथवा दया, दान व दम का जिसने विस्तार किया है [त्रीन् तनोति]; प्राणापान के उस पुरुष की (पाष्योः) = [पष् बन्धने] चित्तवृत्ति के बाँधनेवाले होने पर (यत्) = जब मनुष्य का मन (गुहा) = हृदयरूप गुहा में (पदम्) = [पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पदमुदाहृतः] उस गन्तव्य प्रभु का (उप) - समीपता से सेवन करता है और (यज्ञस्य) = [ यज्ञो वै विष्णुः] संगतीकरण के योग्य प्रभु के (सप्त धामभिः) = सात स्थानों से, योग की सात भूमिकाओं से आगे बढ़ता हुआ (अध) = अब (प्रियम्) = उस प्रीणित करनेवाले प्रभु को अभक्त प्राप्त करता है।
प्रभु को प्राप्त करने के कारण ही इसका नाम 'आप्त्य' = प्राप्त करनेवालों में उत्तम पड़ गया है, त्रित तो यह है ही। उल्लिखित मन्त्रार्थ में 'त्रितस्य' शब्द योगमार्ग के पहले दो अङ्गों का ‘यमनियम' का संकेत करता है। ‘पाष्योः’ शब्द प्राणायाम की सूचना दे रहा है। ‘गुहा' शब्द चित्तवृत्ति के मन में लौटाने, अर्थात् 'प्रत्याहार' = का संकेत देता है । 'सप्त धामभिः' योग की सातों भूमिकाओं को पार करके ही तो प्रभु - दर्शन होता है
भावार्थ
हम त्रित बनें, प्राणापान की साधना से चित्तवृत्ति को हृदय में ही बाँधें, जिससे अन्त में उस प्रिय प्रभु को पा सकें ।
विषय
missing
भावार्थ
(यत्) जब (त्रितस्य) मन, वाक्, काय तीनों से साधना डालने करने हारे योगी आत्मा के (पाष्योः) पाषाण के समान कुचल डालने वाले, प्राण और अपान दोनों के बीच में प्रकट होकर वह आनन्दरस (गुहा) भीतरी आकाशगुहा में (पदं) स्थिति को (उप अभक्त) प्राप्त होता है, तब (यज्ञस्य) यज्ञस्वरूप आत्मा के (सप्तधाममिः) सातों ऊपर के धारणशील प्राणों से (प्रियम्) आनन्दकारी, उस आत्मानन्दरस का आस्वादन किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमात्मविषयमाह।
पदार्थः
(यत्) यस्मात् सः पवमानः सोमः सर्वान्तर्यामी जगत्स्रष्टा परमेश्वरः (पाष्योः) द्यावापृथिव्योः [पष गतौ बन्धने च। पाषयतः बध्नीतः सर्वान् पदार्थान् स्वान्तराले ते पाष्यौ द्यावापृथिव्यौ।] (गुहा) गुहासु अपि (त्रितस्य) पृथिव्यन्तरिक्षद्युरूपत्रिस्थानस्य सूर्यस्य। [त्रितः त्रिस्थान इन्द्रः निरु० ९।४५।] (पदम्) किरणरूपम् (उप अभक्त) उपधत्ते, (अध) तस्मात् (यज्ञस्य) देहे संगतस्य जीवात्मनः (सप्त धामभिः) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्चेति सप्त धामानि तैः (प्रियम्) तं प्रीत्यास्पदं परमेश्वरम्, सपर्यत इति शेषः ॥२॥
भावार्थः
परमात्मनः कीदृश्यद्भुता व्यवस्था विद्यते यत् सूर्यकिरणा विभिन्नलोकानां भूगर्भमपि प्राप्य तत्र स्वतापेन सुवर्णादिधातून् जनयन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०२।२।
इंग्लिश (2)
Meaning
When a Yogi, worshipping God through thought, word and deed, gains stability in the inmost recesses of the heart, and feels joy betwixt Prana and Apana, adamant like a stone, he realises the pleasing, spiritual felicity in the upper seven breaths of the sacrificing soul.
Meaning
Close to the adamantine integration of Purusha and Prakrti in human form is the secret seat of heart and clairvoyant intelligence wherein the climactic presence of the master of three orders of Prakrti and super presence of divinity, and there it is shared by seven prakrtic, pranic and psychic orders of existence and adored by seven metres of Vedic hymns as the dearest supreme object of worship. (Rg. 9-102-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यत् पदं गुहा) જે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માનું પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પદ હૃદયગુહામાં છે (त्रितस्य पाष्योः) સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસના ત્રણેયનો વિસ્તાર કરનારા યોગના ગતિક્રમો અભ્યાસ અને વૈરાગ્યમાં (उप अभक्त) સેવન કરે છે. (यज्ञस्य सप्तधामभिः) જ્ઞાન યજ્ઞના સાત ધામો-સાત છંદો દ્વારા (अध प्रियम्) અનન્તર પ્રિય પરમાત્માને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याची अशी अद्भुत व्यवस्था आहे, की सूर्याची किरणे विभिन्न लोकांच्या (गोलाच्या) भूगर्भात ही पोहोचून तेथे आपल्या तापाने सुवर्ण इत्यादी धातूंना उत्पन्न करतात. ॥२॥
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