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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1024
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
ओ꣡भे सु꣢꣯श्चन्द्र विश्पते꣣ द꣡र्वी꣢ श्रीणीष आ꣣स꣡नि꣢ । उ꣣तो꣢ न꣣ उ꣡त्पु꣢पूर्या उ꣣क्थे꣡षु꣢ शवसस्पत꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१०२४॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । उ꣣भे꣡इति꣣ । सु꣣श्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । द꣢र्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । श्री꣣णीषे । आस꣡नि꣢ । उ꣣त꣢ । उ꣣ । नः । उ꣣त् । पु꣣पूर्याः । उक्थे꣡षु꣢ । श꣣वसः । पते । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१०२४॥
स्वर रहित मन्त्र
ओभे सुश्चन्द्र विश्पते दर्वी श्रीणीष आसनि । उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१०२४॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । उभेइति । सुश्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । दर्वीइति । श्रीणीषे । आसनि । उत । उ । नः । उत् । पुपूर्याः । उक्थेषु । शवसः । पते । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१०२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1024
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - तीनों की ओर चलनेवाला
पदार्थ -
('पुरुषो वाव यज्ञः') इस वाक्य के अनुसार मानव जीवन एक यज्ञ है, उसमें 'ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ' दो कड़छियों के समान है। अथर्व० १०.७.१९ के अनुसार 'यस्य ब्रह्म मुखमाहुः' ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान ही उस प्रभु का मुख है । श्रुतरूपी धनवाला 'वसुश्रुत' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है, यह ज्ञान, कर्म व उपासना तीनों की ओर [त्रि] चलने [अत्] के कारण अत्रि व आत्रेय कहलाता है। । 4
यह 'वसुश्रुत आत्रेय' प्रार्थना करता है कि हे (सुश्चन्द्र) = उत्तम आह्लाद प्राप्त करानेवाले ! (विश्पते) = सब प्रजाओं के पालक प्रभो! आप (उभे) = दोनों (दर्वी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप पुरुषयज्ञ की दर्वियों को (आसनि) = ज्ञानरूप अपने मुख में (आश्रीणीषे) = समन्तात् परिपक्व कर डालते हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ वेदज्ञानरूप अग्नि में परिपक्व होकर मलिनतारहित-सी 'Disinfected' हो जाती हैंउनके मलरूप सभी कृमि नष्ट हो जाते हैं और परिणामतः विषयरूप रोगों की आशंका नहीं रह जाती ।
हे (शवसस्पते) = सब बलों के स्वामिन् प्रभो ! (उत उक्थेषु) = और स्तोत्रों के विषयों में भी (नः) = हमें (उत्पुपूर्या:) = ऊपर तक भर दीजिए । स्तोत्रों का तो हमारे जीवन में परीवाह [overflowinng] होने लगे।
अब ज्ञान और कर्म के सुन्दर परिपाकवाले तथा स्तोत्रों के परीवाहवाले (स्तोतृभ्यः) = अपने स्तोताओं के लिए (इषम्) = सदा अपनी उत्तम प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराइए । आपकी प्रेरणा ही तो इस ज्ञान के धनी वसुश्रुत को आत्रेय - ज्ञानी बनाएगी। ज्ञान, कर्म व उपासना का अपने में समन्वय करनेवाला यह ‘वसुश्रुत आत्रेय' धर्मार्थकामरूप तीनों पुरुषार्थों का भी सुन्दर समन्वय करके श्रीसम्पन्न बनेगा।
भावार्थ -
ज्ञानाग्नि में हम अपनी इन्द्रियों को परिपक्क करें तथा हृदयों को प्रभु-भक्ति से भर लें।
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