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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1024
    ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    36

    ओ꣡भे सु꣢꣯श्चन्द्र विश्पते꣣ द꣡र्वी꣢ श्रीणीष आ꣣स꣡नि꣢ । उ꣣तो꣢ न꣣ उ꣡त्पु꣢पूर्या उ꣣क्थे꣡षु꣢ शवसस्पत꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१०२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । उ꣣भे꣡इति꣣ । सु꣣श्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । द꣢र्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । श्री꣣णीषे । आस꣡नि꣢ । उ꣣त꣢ । उ꣣ । नः । उ꣣त् । पु꣣पूर्याः । उक्थे꣡षु꣢ । श꣣वसः । पते । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१०२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओभे सुश्चन्द्र विश्पते दर्वी श्रीणीष आसनि । उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१०२४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । उभेइति । सुश्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । दर्वीइति । श्रीणीषे । आसनि । उत । उ । नः । उत् । पुपूर्याः । उक्थेषु । शवसः । पते । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१०२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1024
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में शिष्य परमेश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं।

    पदार्थ

    हे (सुश्चन्द्र) शुभ आह्लाद देनेवाले, (विश्पते) प्रजापालक अग्रनायक परमात्मन् ! आप (आसनि) खोले हुए मुख के तुल्य खाली स्थान में (उभे दर्वी) द्युलोक-पृथिवीलोक दोनों को (आश्रीणीषे) चारों ओर से परिपक्व करते हो। (उत उ) और, हे (शवसः पते) बल के अधीश्वर ! (उक्थेषु) प्रशंसित धर्म-कर्मों में (नः) हमें (उत्पुपूर्याः) पूर्ण करो। (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (इषम्) अभीष्ट गुण-कर्म-स्वभाव आदि (आभर) लाओ ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर द्यावापृथिवी को परिपक्व और परिपूर्ण करता है, वैसे ही वह स्तोताओं को परिपक्व मतिवाला तथा धर्म-कर्म में पूर्ण करे ॥३॥

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    पदार्थ

    (सुश्चन्द्र विश्पते) हे उत्तम आह्लादक जड़ जङ्गम प्रजाओं के स्वामी ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (उभे दर्वी) दोनों दर्वियाँ—दारण करनेवाली, नष्ट करनेवाली इन्द्रिय विषययुक्ति और मनोवासना को जो दो चक्की के पाटों के समान चकनाचूर करनेवाली हैं*107 उन्हें (आसनि-आ श्रीणीषे) अपने स्वरूप में पका देता गला देता या आश्रय दे देता है*108 (उत-उ) और (शवसः पते) हे बल के स्वामिन्! (उक्थेषु) प्रशंसावचनों में स्तुतियों के प्रतीकार में (नः स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (इषम्-आभर) कमनीय मुक्ति शान्ति को आभरित कर॥३॥

    टिप्पणी

    [*107. “निरृतिगृहीता वै दर्विः” [मै॰ १.१०.१६]।] [*108. “न घा त्वदिृगपवेति मे मनः त्वमिष्टकामं पुरुहूत शिश्रिते” [ऋ॰ १०.४३.२]।]

    विशेष

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    विषय

    तीनों की ओर चलनेवाला

    पदार्थ

    ('पुरुषो वाव यज्ञः') इस वाक्य के अनुसार मानव जीवन एक यज्ञ है, उसमें 'ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ' दो कड़छियों के समान है। अथर्व० १०.७.१९ के अनुसार 'यस्य ब्रह्म मुखमाहुः' ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान ही उस प्रभु का मुख है । श्रुतरूपी धनवाला 'वसुश्रुत' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है, यह ज्ञान, कर्म व उपासना तीनों की ओर [त्रि] चलने [अत्] के कारण अत्रि व आत्रेय कहलाता है। । 4

    यह 'वसुश्रुत आत्रेय' प्रार्थना करता है कि हे (सुश्चन्द्र) = उत्तम आह्लाद प्राप्त करानेवाले ! (विश्पते) = सब प्रजाओं के पालक प्रभो! आप (उभे) = दोनों (दर्वी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप पुरुषयज्ञ की दर्वियों को (आसनि) = ज्ञानरूप अपने मुख में (आश्रीणीषे) = समन्तात् परिपक्व कर डालते हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ वेदज्ञानरूप अग्नि में परिपक्व होकर मलिनतारहित-सी 'Disinfected' हो जाती हैंउनके मलरूप सभी कृमि नष्ट हो जाते हैं और परिणामतः विषयरूप रोगों की आशंका नहीं रह जाती ।

    हे (शवसस्पते) = सब बलों के स्वामिन् प्रभो ! (उत उक्थेषु) = और स्तोत्रों के विषयों में भी (नः) = हमें (उत्पुपूर्या:) = ऊपर तक भर दीजिए । स्तोत्रों का तो हमारे जीवन में परीवाह [overflowinng] होने लगे। 

    अब ज्ञान और कर्म के सुन्दर परिपाकवाले तथा स्तोत्रों के परीवाहवाले (स्तोतृभ्यः) = अपने स्तोताओं के लिए (इषम्) = सदा अपनी उत्तम प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराइए । आपकी प्रेरणा ही तो इस ज्ञान के धनी वसुश्रुत को आत्रेय - ज्ञानी बनाएगी। ज्ञान, कर्म व उपासना का अपने में समन्वय करनेवाला यह ‘वसुश्रुत आत्रेय' धर्मार्थकामरूप तीनों पुरुषार्थों का भी सुन्दर समन्वय करके श्रीसम्पन्न बनेगा।

    भावार्थ

    ज्ञानाग्नि में हम अपनी इन्द्रियों को परिपक्क करें तथा हृदयों को प्रभु-भक्ति से भर लें।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे ! (सु-चन्द्र) सर्व उत्तम ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! सर्वसुखकारक, (विश्पते) प्रजेश्वर ! हे (शवसः स्पते) सर्वशक्तिमन् ! सब बलों के स्वामिन् ! आप (उभे) दोनों (दर्वी) अज्ञान का दलन करने हारे ज्ञान और कर्म या सूर्य और पृथिवी को (आसनि) अपने मुखस्थानीय तप (श्रीणीषे) परिपक्व करते हो और (उक्थेषु) प्रशंसा करने योग्य धर्मयुक्त कर्मों में, यज्ञों में (नः) हमें (उत्पुपूर्यांः) उत्तम फलों द्वारा पूर्ण करें (इषं स्तोतृभ्यः, आ भर) आप विद्वान् सत्यज्ञानी पुरुषों को अन्न और ज्ञान प्राप्त कराइये।

    टिप्पणी

    ‘उभे सुश्चन्द्र सर्पिषो’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शिष्याः परमेश्वरं प्रार्थयन्ते।

    पदार्थः

    हे (सुश्चन्द्र) शुभाह्लादक, (विश्पते) प्रजापालक अग्ने अग्रणीः परमात्मन् ! त्वम् (आसनि) व्यादत्ते मुखे इव अवकाशस्थले (उभे दर्वी) उभे द्यावापृथिव्यौ। [दीर्येते प्रलयकाले ये ते दर्वी। दृ विदारणे धातोः ‘वृदृभ्यां विन्’। उ० ४।५४ इत्यनेन विन् प्रत्ययः। दर्व्यौ इति प्राप्ते पूर्वसवर्णदीर्घः।] (आश्रीणीषे) समन्ततः परिपक्वे करोषि। (उत उ) अपि च हे (शवसः पते) बलस्य अधीश्वर ! (उक्थेषु) प्रशंसितेषु धर्म्येषु कर्मसु२ (नः) अस्मान् (उत्पुपूर्याः) पूर्णान् कुर्याः। [पॄ पालनपूरणयोः,जुहोत्यादिः, लिङ्।] (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यः अस्मभ्यम् (इषम्) अभीष्टं गुणकर्मस्वभावादिकम् (आ भर) आहर ॥३॥३

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरो द्यावापृथिव्यौ परिपक्वे परिपूर्णे च करोति तथैव स स्तोतॄन् परिपक्वमतीन् धर्मकर्मसु पूर्णांश्च कुर्यात् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ५।६।९, ‘उ॒भे सु॑श्चन्द्र स॒र्पिषो॒’ इति प्रथमः पादः। २. द्रष्टव्यम् ऋ० ५।६।९ दयानन्दभाष्यम्। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘यो राजा सैन्यस्य भोजनप्रबन्धमुत्तममारोग्याय वैद्यान् रक्षति स एव प्रशंसितो भूत्वा राज्यं वर्धयति’ इति विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omnipotent, Glorious, Lord of men. Thou maturest both knowledge and action under Thy hold. Fulfill our desires in religious acts. Grant knowledge and food to those who sing Thy praise !

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    Meaning

    Agni, mighty lord of golden glory inform, creator and wielder of universal energy, you catalyse two ladlefuls of liquid fuel in your crucible for impulsion and expulsion in cosmic metabolism. Thus, O lord, fulfil us too in holy tasks of yajna and create and bring food and energy for the celebrants. (Rg. 5-6-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुश्चन्द्र विश्पते) હે ઉત્તમ આહ્લાદક જડ અને જંગમ પ્રજાઓના સ્વામી જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (उभे दर्वी) બન્ને દર્વિઓ-દારણ કરનારી, નષ્ટ કરનારી ઇન્દ્રિય યુક્તિ અને મનોવાસનાને જે ચક્કીના બે પડની સમાન ચકનાચૂર-દળી નાખનારી છે, તેને (आसनि आ श्रीणीषे) પોતાનાં સ્વરૂપમાં પકાવી નાખતાં, ઓગાળી નાખતાં અથવા આશ્રય આપી દે છે. (उत् उ) અને (शवसः पते) હે બળના સ્વામિન્ ! (उक्थेषु) પ્રશંસા વચનોમાં-સ્તુતિઓના બદલામાં-પુરસ્કારમાં (नमः स्तोतृभ्यः) અમે સ્તોતાઓને માટે (इषम् आभर) કમનીય મુક્તિ શાન્તિને આભરિત કર-ભરી દે-પ્રાપ્ત કરાવ. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर द्यावा पृथ्वीला परिपक्व व परिपूर्ण करतो, तसेच त्याने स्तोत्यांना परिपक्व, बुद्धिमान व धर्मकर्मात पूर्ण करावे. ॥३॥

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