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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1033
ऋषिः - त्रय ऋषयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
1
अ꣢ग्रे꣣ सि꣡न्धू꣢नां꣣ प꣡व꣢मानो अर्ष꣣त्य꣡ग्रे꣢ वा꣣चो꣡ अ꣢ग्रि꣣यो꣡ गोषु꣢꣯ गच्छसि । अ꣢ग्रे꣣ वा꣡ज꣢स्य भजसे म꣣ह꣡द्धन꣢꣯ꣳ स्वायु꣣धः꣢ सो꣣तृ꣡भिः꣢ सोम सूयसे ॥१०३३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्रे꣢꣯ । सि꣡न्धू꣢꣯नाम् । प꣡व꣢꣯मानः । अ꣡र्षसि । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । अ꣡ग्रियः꣢ । गो꣡षु꣢꣯ । ग꣣च्छसि । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯स्य । भ꣣जसे । मह꣢त् । ध꣡न꣢꣯म् । स्वा꣣यु꣢धः । सु꣡ । आयुधः꣢ । सो꣣तृ꣡भिः꣢ । सो꣣म । सूयसे ॥१०३३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्रे सिन्धूनां पवमानो अर्षत्यग्रे वाचो अग्रियो गोषु गच्छसि । अग्रे वाजस्य भजसे महद्धनꣳ स्वायुधः सोतृभिः सोम सूयसे ॥१०३३॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्रे । सिन्धूनाम् । पवमानः । अर्षसि । अग्रे । वाचः । अग्रियः । गोषु । गच्छसि । अग्रे । वाजस्य । भजसे । महत् । धनम् । स्वायुधः । सु । आयुधः । सोतृभिः । सोम । सूयसे ॥१०३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1033
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - सर्वप्रथम स्थान में
पदार्थ -
१. (सिन्धूनाम्) = शरीर में प्रवाहित होनेवाले सोमकणों से अपने को (पवमानः) =पवित्र करनेवाले 'अकृष्टमाष'! तू (अग्रे असि) = आगे बढ़ता है, अर्थात् जीवन-यात्रा में तू उन्नति-ही-उन्नति करता चलता है। २. (वाचः अग्रे) = इस वेदवाणी के दृष्टिकोण से तू अग्रभाग में स्थित होता है, अर्थात् उत्कृष्ट वेदज्ञानी बनता है। ३. (गोषु) - सब ज्ञानेन्द्रियों में अथवा इन्द्रियमात्र में (अग्रियः गच्छसि) = तू आगे होनेवाला होता है । तेरी प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति का पूर्ण विकास होता है । ४. (वाजस्य अग्रे) = शक्ति के भी तू अग्रभाग में होता है, अर्थात् शक्तिशालियों का भी मुखिया बनता है ।५. (महत् धनं भजसे) = महनीय धन का तू सेवन करनेवाला होता है— उत्तममार्ग से धन कमाकर तू धनियों में भी श्रेष्ठ होता है ।
सोम के महत्त्व को अनुभव करता हुआ यह ‘अकृष्टमाष' सोम को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे (सोम) = सोम! तू (स्वायुधः) = उत्तम आयुध है, तेरे द्वारा ही सब अध्यात्मसंग्रामों में मुझे विजय प्राप्त होती है। हे सोम! तू (सोतृभिः) = [सु गतौ] गतिशील व्यक्तियों के द्वारा सूयसे जन्म दिया जाता है, गतिशील व्यक्ति ही सोम की रक्षा कर पाते हैं।
भावार्थ -
हम सोम के महत्त्व को समझें। उसकी पवित्रता के द्वारा जीवन में हमारा स्थान सर्वोच्च हो ।
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