Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 105
ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
5
अ꣢प꣣ त्यं꣡ वृ꣢जि꣣न꣢ꣳ रि꣣पु꣢ꣳ स्ते꣣न꣡म꣢ग्ने दुरा꣣꣬ध्य꣢꣯म् । द꣡वि꣢ष्ठमस्य सत्पते कृ꣣धी꣢ सु꣣ग꣢म् ॥१०५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡प꣢꣯ । त्यम् । वृ꣣जिन꣢म् । रि꣣पु꣢म् । स्ते꣣न꣢म् । अ꣣ग्ने । दुराध्य꣢꣯म् । दुः꣣ । आ꣡ध्य꣢꣯म् । द꣡वि꣢꣯ष्ठम् । अ꣣स्य । सत्पते । सत् । पते । कृधि꣢ । सु꣣ग꣢म् । सु꣣ । ग꣢म् ॥१०५॥
स्वर रहित मन्त्र
अप त्यं वृजिनꣳ रिपुꣳ स्तेनमग्ने दुराध्यम् । दविष्ठमस्य सत्पते कृधी सुगम् ॥१०५॥
स्वर रहित पद पाठ
अप । त्यम् । वृजिनम् । रिपुम् । स्तेनम् । अग्ने । दुराध्यम् । दुः । आध्यम् । दविष्ठम् । अस्य । सत्पते । सत् । पते । कृधि । सुगम् । सु । गम् ॥१०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 105
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
विषय - दूर से दूर फेंकिए [ सात समुद्र पार ]
पदार्थ -
हे (सत्पते)=सयनों के रक्षक! हमारे मार्ग को (सुगम्) = सुगमता से जाने योग्य, सरल (कृधि) = कीजिए। हम सब कभी-न-कभी उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ चलने का संकल्प अवश्य करते हैं, उस मार्ग पर चल भी पड़ते हैं, परन्तु उसपर चलना ('क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति') सचमुच छुरे की तेज धार के समान कठिन प्रतीत होता है और हम फिर-फिर रुक जाया करते हैं। तब हम प्रभु से आराधना करते हैं कि (दविष्ठम्) = दूर-से-दूर [बहुत दूर] (अस्य) = इसे फेंकिए। यह बारम्बार लौटकर हमारे मार्ग को दुर्गम न बनाती रहे। स्पष्ट है कि यह मार्ग का विघ्न बड़ा धृष्ट [हठी obstinate] है, इसे हम परे फेंक भी दें, यह फिर आ जाता है, अतः हारकर हम प्रभु से कहते हैं कि आप इसे दूर से दूर [ सात समुद्र पार] फेंकिए जिससे यह फिर न लौट आये।
इस विघ्न का चित्रण ही 'वृजिनं, रिपुं, स्तेनं व दुराध्यम्' इन चार शब्दों से हुआ है। यह विघ्नरूप वासना [काम] (वृजिनम्) = वर्जनीय [वृजी वर्जने] है। इसकी आकृति अत्यन्त सुन्दर है, वस्तुत: सब देवों में सर्वाधिक सुन्दर 'काम' ही है। यह अत्यन्त कान्त है, परन्तु यह सुन्दराकृति सर्प के समान है, जो विषमय होने से बचकर चलने योग्य है। हम इसके फन्दे में पड़ गये तो यह 'रिपु' है, हमारा विदारण [Rip] करनेवाला है। यह हमें नष्ट-भ्रष्ट कर देगा। भोगों को हम भोगने लगें तो हम उनका शिकार हो जाएँगें । ये हमारी इन्द्रियशक्तियों को जीर्ण कर देंगे–(सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः) । इतना ही नहीं, यह स्तेन है। ('संस्त्यानमस्मिन् पापकम्') इसमें पाप घनीभूत होकर रह रहा है। इसके वशीभूत होने पर हमारा जीवन पापमय हो जाएगा।
यह सब-कुछ होते हुए यह 'दुराध्य' है, (दुःखेन वशीकर्तुं योग्यम्') [दयानन्द]। इसका वश में करना बड़ा कठिन है और इसे दूर किये बिना आगे बढ़ना असम्भव है, अतः हम प्रभु से कहते हैं कि (त्यम्) = इस प्रसिद्ध वासनारूप शत्रु को (अप-अस्य) = हमसे दूर फेंकिए [असु क्षेपणे] जिससे हम आगे बढ़ सकें। हे प्रभो! आप (अग्ने) = हमें आगे ले-चलनेवाले हैं। हम स्वयं आगे क्या बढ़ पाएँगे? आपकी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर मैं 'भरद्वाज' बनूँगा और तभी सरलता से अपने मार्ग पर आग बढ़नेवाला 'ऋजिश्वा' [ऋजु सरल, शिव - गति] हो सकूँगा।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हम 'ऋजिश्वा भरद्वाजः' बन पाएँ ।
इस भाष्य को एडिट करें