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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1058
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
उ꣣स्रा꣡ वे꣢द꣣ व꣡सू꣢नां꣣ म꣡र्त꣢स्य दे꣣व्य꣡व꣢सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०५८॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣स्रा꣢ । उ꣣ । स्रा꣢ । वे꣣द । व꣡सू꣢꣯नाम् । म꣡र्त꣢꣯स्य । दे꣣वी꣢ । अ꣡व꣢꣯सः । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०५८॥
स्वर रहित मन्त्र
उस्रा वेद वसूनां मर्तस्य देव्यवसः । तरत्स मन्दी धावति ॥१०५८॥
स्वर रहित पद पाठ
उस्रा । उ । स्रा । वेद । वसूनाम् । मर्तस्य । देवी । अवसः । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥१०५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1058
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - प्रातः जागरण
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि ‘अवत्सार काश्यप'= जब शरीर की सारभूत वस्तु सोम की रक्षा करनेवाला होता है और परिणामतः ज्ञानी बनता है तब १. (उस्स्रा) = उष:काल उसे (वसूनाम्) = सब उत्तम वस्तुओं को [वसु = goods] (वेद) = प्राप्त कराता है । यह प्रातः काल जागता है और जीवन को उत्तम बनाने के = सङ्कल्प से अपने दिन को प्रारम्भ करता है । २. यह उष:काल तो वस्तुतः (मर्तस्य) = सामान्य मरणधर्मा मनुष्य को (देवी) = दिव्य जीवनवाला बना देता है । अन्यत्र वेद में इसी भावना को, ('उषर्बुधो हि देवा:) '=' देव प्रातः जागरणवाले होते हैं ', इन शब्दों से व्यक्त किया गया है। उषा 'मर्तस्य देवी' है। मनुष्य को देवता बना देती है। ३. (अवस:) = इस उषा के रक्षण से (तरत्) = सब विघ्नों को पार करता हुआ (सः) = वह ' अवत्सार' (मन्दी) = एक विशेष ही आनन्दयुक्त जीवनवाला बनकर धावति-आगे बढ़ता चलता है। आगे बढ़ने के साथ ही अधिक शुद्ध होता जाता है [धाव्=गति+शुद्धि] |
भावार्थ -
प्रातः जागरण से १. हम उत्तमताओं को प्राप्त करें, २. सामान्य मनुष्य की स्थिति से ऊपर उठकर देव बन जाएँ और ३. विघ्नों को तैरते हुए उल्लास के साथ आगे बढ़ते चलें।
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