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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1060
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡ ययो꣢꣯स्त्रि꣣ꣳश꣢तं꣣ त꣡ना꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢णि च꣣ द꣡द्म꣢हे । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥१०६०॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । य꣡योः꣢꣯ । त्रि꣣ꣳश꣡त꣢म् । त꣡ना꣢꣯ । स꣣ह꣡स्रा꣢णि । च꣣ । द꣡द्म꣢꣯हे । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥१०६०॥


स्वर रहित मन्त्र

आ ययोस्त्रिꣳशतं तना सहस्राणि च दद्महे । तरत्स मन्दी धावति ॥१०६०॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । ययोः । त्रिꣳशतम् । तना । सहस्राणि । च । दद्महे । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥१०६०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1060
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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पदार्थ -

(ययोः) = जिन प्राणापानों के (तना) = [तना – - धननाम – नि० २-१०] धनों को अथवा विस्तार को [तनु विस्तारे] (च सहस्राणि) = और शक्तिदानों को (त्रिंशतम्) = तीसों दिन, अर्थात् बिना एक भी दिन के विच्छेद के (आदमहे) = हम स्वीकार करते हैं, लेने का प्रयत्न करते हैं तो (तरत्) = योग-मार्ग के सब विघ्नों को पार करता हुआ (सः) = यह 'अवत्सार काश्यप' (मन्दी) = आनन्दमय जीवनवाला होकर (धावति) = मार्ग पर तीव्रता से बढ़ता है और शुद्ध जीवनवाला होता है । 

योगदर्शन में इसी भावना को 'दीर्घकाल और नैरन्तर्य' शब्दों के प्रयोग से कहा गया है। हमें श्रद्धापूर्वक प्राणसाधना में लगना चाहिए। त्रिंशतम्-यह द्वितीया विभिक्ति का प्रयोग ‘अत्यन्त संयोग' को कहता हुआ निरन्तर प्राणसाधना पर बल दे रहा है । 'तीसों दिन', अर्थात् लगातार, प्रतिदिन, बिना विच्छेद के।

भावार्थ -

निरन्तर प्राणसाधना में लगे रहेंगे तो प्राणों के धन व बल को प्राप्त करेंगे। योग की विभूतियाँ ही प्राणों का धन है।
 

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