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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1086
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
आ꣡ यद्दुवः꣢꣯ शतक्रत꣣वा꣡ कामं꣢꣯ जरितॄ꣣णा꣢म् । ऋ꣣णो꣢꣫रक्षं꣣ न꣡ शची꣢꣯भिः ॥१०८६॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । दु꣡वः꣢꣯ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । आ꣢ । का꣡म꣢꣯म् । ज꣣रितॄणा꣢म् । ऋ꣣णोः꣢ । अ꣡क्ष꣢꣯म् । न । श꣡ची꣢꣯भिः ॥१०८६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम् । ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥१०८६॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । यत् । दुवः । शतक्रतो । शत । क्रतो । आ । कामम् । जरितॄणाम् । ऋणोः । अक्षम् । न । शचीभिः ॥१०८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1086
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - धन्यता
पदार्थ -
(शचीभिः) = अपने प्रज्ञानों व कर्मों से जो (अक्षं न) = एक धुरे के समान है, अर्थात् जिसके जीवन में ज्ञान और कर्म एक पक्षी के दायें व बायें पंखों के समान हैं, उन (जरितॄणाम्) - स्तोताओं की (कामम्) = कामना को हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो ! (आऋणोः) = प्राप्त कराइए । (यत्) = जो (दुवः) = धन है, अर्थात् जिस भी वस्तु से मनुष्य वस्तुतः धन्य बनता है, उसे इन स्तोताओं को सर्वथा दीजिए ।
यदि मनुष्य अपने जीवन में कर्म व ज्ञान का समन्वय करके चलता है तो उसके जीवन में सच्ची प्रभु-भक्ति होती है । इन प्रभु-भक्तों की कामना को प्रभु पूर्ण करते हैं तथा इन्हें वह सम्पत्ति प्राप्त कराते हैं, जिससे इनका जीवन सचमुच धन्य हो जाता है ।
भावार्थ -
मेरे जीवन में ज्ञान व कर्म का सुन्दर समन्वय हो । मैं 'ज्ञानयोगव्यवस्थितिः' वाला बनूँ ।
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