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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1091
ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः0पूर्वार्धः, गोधा ऋषिका0उत्तरार्धः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - महापङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
दी꣣र्घ꣡ꣳ ह्य꣢ङ्कु꣣शं꣡ य꣢था꣣ श꣢क्तिं꣣ बि꣡भ꣢र्षि मन्तुमः । पू꣡र्वे꣢ण मघवन्प꣣दा꣢ व꣣या꣢म꣣जो꣡ यथा꣢꣯ यमः । दे꣣वी꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनद्भ꣣द्रा꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनत् ॥१०९१॥
स्वर सहित पद पाठदी꣣र्घ꣢म् । हि । अ꣣ङ्कुश꣢म् । य꣣था । श꣡क्ति꣢꣯म् । बि꣡भ꣢꣯र्षि । म꣣न्तुमः । पू꣡र्वे꣢꣯ण । म꣣घवन् । पदा꣢ । व꣣या꣢म् । अ꣣जः꣢ । य꣡था꣢꣯ । य꣣मः । दे꣣वी꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् । भद्रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् ॥१०९१॥
स्वर रहित मन्त्र
दीर्घꣳ ह्यङ्कुशं यथा शक्तिं बिभर्षि मन्तुमः । पूर्वेण मघवन्पदा वयामजो यथा यमः । देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥१०९१॥
स्वर रहित पद पाठ
दीर्घम् । हि । अङ्कुशम् । यथा । शक्तिम् । बिभर्षि । मन्तुमः । पूर्वेण । मघवन् । पदा । वयाम् । अजः । यथा । यमः । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥१०९१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1091
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - संयमी जीवन
पदार्थ -
जो भी व्यक्ति सोम के संयम के द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, वह प्रभु के द्वारा ‘मान्धाता'=[मेरा धारण करनेवाला] कहलाता है। यह मान्धाता 'यौवनाश्व' है—इसने अपने इन्द्रियरूप अश्वों को विषयों से पृथक् करके [यु= अमिश्रण] आत्मतत्त्व के साथ जोड़ने का [यु= मिश्रण] प्रयत्न किया है । प्रभु इस मान्धाता से कहते हैं कि –
१. हे (मन्तुम:) = विचारशील मनन करनेवाले मान्धात: ! तू (यथा) = जैसे-जैसे (शक्तिम्) = शक्ति को बिभर्षि धारण करता है, उसी प्रकार (हि) =निश्चय से ३. (दीर्घम्) = सब अशुभों को विदारण करनेवाले (अंकुशम्) = अंकुश को भी–संयमवृत्ति को भी (बिभर्षि) = धारण करता है । (यथा) = जैसे (अज:) = बकरा (पूर्वेण पदा) = अपने अगले चरणों से (वयाम्) = वृक्ष की शाखा को पकड़ता है, हे (मघवन्) = ज्ञानैश्वर्यवाले मान्धात: ! तू भी (पूर्वेण पदा) = अपनी जीवन-यात्रा के प्रथम चरण, अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम से (वयाम्) = यौवन को [वय:=यौवन] (आयम:) = बड़ा नियन्त्रणवाला बनाता है । ४. यही कारण है कि (देवी जनित्री) = यह दिव्य गुणों का विकास करनेवाली वेदवाणी (अजीजनत्) = तेरा विकास करती है । तू इस दिव्य वेदवाणी को पढ़ाता है और यह वाणी तुझमें दिव्य गुणों का विकास करती है, ५. (भद्रा जनित्री) = यह कल्याण और सुख को जन्म देनेवाली वेदवाणी (अजीजनत्) = तुझमें शुभ जीवन को विकसित करती है ।
भावार्थ -
प्रभु का धारण वह करता है जो १. विचारशील बनता है, २. शक्ति का धारण करता है, ३. संयमी होता है, ४. अपने में दिव्य गुणों का विकास करता है और ५. शुभ कार्यों का करनेवाला होता है ।
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