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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1092
ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - महापङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
2

अ꣡व꣢ स्म दुर्हृणाय꣣तो꣡ मर्त्त꣢꣯स्य तनुहि स्थि꣣र꣢म् । अ꣣धस्पदं꣡ तमीं꣢꣯ कृधि꣣ यो꣢ अस्मा꣡ꣳ अ꣢भि꣣दा꣡स꣢ति । दे꣣वी꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनद्भ꣣द्रा꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनत् ॥१०९२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡व꣢꣯ । स्म꣣ । दुर्हृणायतः꣢ । दुः꣣ । हृणायतः꣢ । म꣡र्त्त꣢꣯स्य । त꣣नुहि । स्थिर꣢म् । अ꣣धस्पद꣢म् । अ꣣धः । प꣢दम् । तम् । ई꣣म् । कृधि । यः꣢ । अ꣣स्मा꣢न् । अ꣣भिदा꣡स꣢ति । अ꣣भि । दा꣡स꣢꣯ति । दे꣣वी꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣡जीजनत् । भद्रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् ॥१०९२॥


स्वर रहित मन्त्र

अव स्म दुर्हृणायतो मर्त्तस्य तनुहि स्थिरम् । अधस्पदं तमीं कृधि यो अस्माꣳ अभिदासति । देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥१०९२॥


स्वर रहित पद पाठ

अव । स्म । दुर्हृणायतः । दुः । हृणायतः । मर्त्तस्य । तनुहि । स्थिरम् । अधस्पदम् । अधः । पदम् । तम् । ईम् । कृधि । यः । अस्मान् । अभिदासति । अभि । दासति । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥१०९२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1092
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

इस ‘मान्धाता’ का जीवन इतना सुन्दर होता है कि इसके समीप पहुँचने पर क्रूर-से-क्रूर व्यक्ति भी दयार्द्र हो जाता है। उसका कठोर चित्त पिघल जाता है । हे मान्धाता ! तू १. (दुर्हणायत:) = [हृणीङ् रोषणे वैमनस्ये च] औरों के लिए दुःख का कारण बननेवाले क्रोध व वैमनस्य से युक्त (मर्तस्य) = पुरुष के (स्थिरम्) = दृढ़ व कठोर चित्त को (अवतनुहि स्म) = वैसे ही ढीला कर दे, जैसे धनुष पर से कसी प्रत्यञ्चा को खोल दिया जाता है। तू क्रोधी व द्वेषी पुरुष के मनरूपी धनुष पर कसी हुई द्वेष की डोरी को खोल डाल और उसे ढीला कर दे। जैसे अहिंसक पुरुष के सामने आकर शेर आदि भी अपनी हिंसावृत्ति को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार मान्धाता के सामने कठोर-से-कठोर चित्तवाले क्रोधी पुरुष का क्रोध ढीला पड़ जाता है ।

२. यह मान्धाता प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! (यः) = जो भी काम-क्रोधादि के असद्भाव (अस्मान्) = हम आस्तिकवृत्तिवालों को (अभिदासति) = नष्ट करना चाहता है, आप कृपया (तम्) = उस वृत्ति को (ईम्) = निश्चय से (अधस्पदं कृधि) = पाँवों तले रौंद दीजिए। आपकी कृपा से हम उसे कुचलकर नष्ट कर सकें ।

३. (देवी जनित्री अजीजनत्) = हमारा विकास करनेवाली दिव्य वेदवाणी ने हमारा विकास किया है—हमारे जीवन में दिव्य गुणों को जन्म दिया है। ४. (भद्रा जनित्री अजीजनत्) = सब सुखों को जन्म देनेवाली वेदवाणी ने हमारा शुभ – कल्याण किया है।

भावार्थ -

इस ‘मान्धाता’ का जीवन इतना सुन्दर होता है कि इसके समीप पहुँचने पर क्रूर-से-क्रूर व्यक्ति भी दयार्द्र हो जाता है। उसका कठोर चित्त पिघल जाता है । हे मान्धाता ! तू १. (दुर्हणायत:) = [हृणीङ् रोषणे वैमनस्ये च] औरों के लिए दुःख का कारण बननेवाले क्रोध व वैमनस्य से युक्त (मर्तस्य) = पुरुष के (स्थिरम्) = दृढ़ व कठोर चित्त को (अवतनुहि स्म) = वैसे ही ढीला कर दे, जैसे धनुष पर से कसी प्रत्यञ्चा को खोल दिया जाता है। तू क्रोधी व द्वेषी पुरुष के मनरूपी धनुष पर कसी हुई द्वेष की डोरी को खोल डाल और उसे ढीला कर दे। जैसे अहिंसक पुरुष के सामने आकर शेर आदि भी अपनी हिंसावृत्ति को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार मान्धाता के सामने कठोर-से-कठोर चित्तवाले क्रोधी पुरुष का क्रोध ढीला पड़ जाता है ।

२. यह मान्धाता प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! (यः) = जो भी काम-क्रोधादि के असद्भाव (अस्मान्) = हम आस्तिकवृत्तिवालों को (अभिदासति) = नष्ट करना चाहता है, आप कृपया (तम्) = उस वृत्ति को (ईम्) = निश्चय से (अधस्पदं कृधि) = पाँवों तले रौंद दीजिए। आपकी कृपा से हम उसे कुचलकर नष्ट कर सकें ।

३. (देवी जनित्री अजीजनत्) = हमारा विकास करनेवाली दिव्य वेदवाणी ने हमारा विकास किया है—हमारे जीवन में दिव्य गुणों को जन्म दिया है। ४. (भद्रा जनित्री अजीजनत्) = सब सुखों को जन्म देनेवाली वेदवाणी ने हमारा शुभ – कल्याण किया है।

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