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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1105
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
उ꣣त꣡ न꣢ ए꣣ना꣡ प꣢व꣣या꣡ प꣢व꣣स्वा꣡धि꣢ श्रु꣣ते꣢ श्र꣣वा꣡य्य꣢स्य ती꣣र्थे꣢ । ष꣣ष्टि꣢ꣳ स꣣ह꣡स्रा꣢ नैगु꣣तो꣡ वसू꣢꣯नि वृ꣣क्षं꣢꣫ न प꣣क्वं꣡ धू꣢नव꣣द्र꣡णा꣢य ॥११०५॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣त꣢ । नः꣣ । एना꣢ । प꣣वया꣢ । प꣢वस्व । अ꣡धि꣢꣯ । श्रु꣣ते꣢ । श्र꣣वा꣡य्य꣢स्य । ती꣣र्थे꣢ । ष꣣ष्टि꣢म् । स꣣ह꣡स्रा꣢ । नै꣣गुतः꣢ । नै꣣ । गुतः꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । वृ꣣क्ष꣢म् । न । प꣣क्व꣡म् । धू꣣नवत् । र꣡णा꣢꣯य ॥११०५॥
स्वर रहित मन्त्र
उत न एना पवया पवस्वाधि श्रुते श्रवाय्यस्य तीर्थे । षष्टिꣳ सहस्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय ॥११०५॥
स्वर रहित पद पाठ
उत । नः । एना । पवया । पवस्व । अधि । श्रुते । श्रवाय्यस्य । तीर्थे । षष्टिम् । सहस्रा । नैगुतः । नै । गुतः । वसूनि । वृक्षम् । न । पक्वम् । धूनवत् । रणाय ॥११०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1105
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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विषय - तीर्थ में स्नान
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि कुत्स है, जो [कुथ हिंसायाम् ] सब अशुभों की हिंसा करके शुभों को प्राप्त करता है। दुरितों से दूर और शुभों के समीप होने के कारण ही यह 'आङ्गिरस' भी है—अङ्गप्रत्यङ्ग में शक्तिवाला है । यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि आप १. (न:) = हमें (एना पवया) = इस पावन क्रिया से (पवस्व) = पवित्र कीजिए । २. (उत) = और हम सदा (अधिश्रुते) = शास्त्रश्रवण में स्थित हों। ३. (श्रवाय्यस्य) = वेदवाणियों से श्रोतव्य प्रभु के (तीर्थे) = तारक स्थान में हम सदा निवास करनेवाले हों, अर्थात् प्रभुनिष्ठ होने के लिए सदा प्रभु का ध्यान करें। ४. (नैगुतः) = भक्तों के प्रिय प्रभो! [नु शब्दे, नितरां शब्दायन्ते परमेश्वरम् निगुतः=भक्ता, तेषामयम्], आप (रणाय) = हमारे आध्यात्मिक संग्राम के लिए (षष्टिं सहस्रा) = अनन्त (वसूनि) = ज्ञानों को (धूनवत्) = प्राप्त कराते हैं, (न) = उसी प्रकार जैसेकि कोई भी व्यक्ति फलों की कामना से (पक्वं वृक्षम्) = पके फलोंवाले वृक्ष को (धूनवत्) = कम्पित करता है ।
भावार्थ -
प्रभु तीर्थ हैं, भक्त लोग उस तीर्थ में स्नान करते हैं और अपने जीवनों को पवित्र कर लेते हैं।
टिप्पणी -
नोट – ' षष्टिं सहस्रा' शब्द सामान्यतः 'आनन्त्य' के लिए पारिभाषिक शब्द है ।