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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 112
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
य꣡जि꣢ष्ठं त्वा ववृमहे दे꣣वं꣡ दे꣢व꣣त्रा꣡ होता꣢꣯र꣣म꣡म꣢र्त्यम् । अ꣣स्य꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सु꣣क्र꣡तु꣢म् ॥११२॥
स्वर सहित पद पाठय꣡जि꣢꣯ष्ठम् । त्वा꣣ । ववृमहे । देव꣢म् । दे꣢वत्रा꣢ । हो꣡ता꣢꣯रम् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । अस्य꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । सुक्र꣡तु꣢म् । सु꣣ । क्र꣡तु꣢꣯म् ॥११२॥
स्वर रहित मन्त्र
यजिष्ठं त्वा ववृमहे देवं देवत्रा होतारममर्त्यम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥११२॥
स्वर रहित पद पाठ
यजिष्ठम् । त्वा । ववृमहे । देवम् । देवत्रा । होतारम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् । सु । क्रतुम् ॥११२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 112
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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विषय - यजिष्ठ प्रभु के वरण का लाभ
पदार्थ -
सोभरि काण्व प्रार्थना करता है कि हम (यजिष्ठम्) = दान देनेवालों में सर्वश्रेष्ठ (त्वा) = तुझे [प्रभु को] (ववृमहे) = वरते हैं। इस जीवन यात्रा में जिसने प्रभु को वरा वही 'काण्व'=मेधावी है। प्रकृति का वरण बुद्धिमत्ता नहीं; यह घाटे का सौदा है। इसमें क्षणिक आनन्द के लिए हम अपनी इन्द्रिय शक्तियों को जीर्ण कर लेते हैं और अपने ज्ञान को क्षीण करनेवाले बनते हैं, किन्तु सोभरि-जीवन यात्रा का भरण करनेवाला है इसलिए वह प्रभु का वरण करता है।
वे प्रभु यजिष्ठ हैं। यजिष्ठ शब्द का ही व्याख्यान मन्त्र में इस प्रकार करते हैं कि (देवत्रा) = देवों में भी (देवम्) = वह प्रभु देव हैं। ('देवो दानात्') = देव देता है। सूर्यादि प्रकाशादि देने से देव हैं। प्रभु महान् देव हैं और सब देवों की देने की शक्ति सीमित है- प्रभु की दानशक्ति असीम है। (होतारम्)=प्रभु तो जीव के हित के लिए अपनी आहुति दे देनेवाले हैं। ('आत्मदा')=अपने को दे देनेवाले हैं।
जो व्यक्ति इस प्रभु का वरण करता है वह भी अपने जीवन को ऐसा ही बनाता है। यजिष्ठ के वरण का अभिप्राय यही तो है कि यह वरण करनेवाला भी यजिष्ठ बनने का निश्चय करता है। यह अधिक-से-अधिक दान देनेवाला बनता है। इसका लाभ यह होता है कि (अमर्त्यम्) = प्रभु तो न मरनेवाले हैं ही, दान देनेवाला भी अमर हो जाता है। अमर्त्य की भावना यह भी है कि इस त्यागवृत्ति के कारण भोगों का शिकार न होकर वह रोगों में नहीं फँसता। वह स्वाभाविक मृत्यु से ही शरीर छोड़ता है।
वे प्रभु (अस्य यज्ञस्य) = इस ब्रह्माण्ड - यज्ञ के (सुक्रतुम्) = उत्तम कर्त्ता हैं। प्रभु की अपनी आवश्यकताएँ नहीं, इसी का परिणाम है कि वे ब्रह्माण्ड - यज्ञ को उत्तम प्रकार से चला रहे हैं, हम भी अपनी आवश्यकताओं को कम करेंगे तो अपने जीवन-यज्ञ के उत्तम कर्त्ता बन पाएँगे।
भावार्थ -
हम देनेवाले बनकर अमर्त्य बनें और जीवन-यज्ञ को उत्तम विधि से पूर्ण करें।
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