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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1135
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

आ꣢ मि꣣त्रे꣡ वरु꣢꣯णे꣣ भ꣢गे꣣ म꣡धोः꣢ पवन्त ऊ꣣र्म꣡यः꣢ । वि꣣दाना꣡ अ꣢स्य꣣ श꣡क्म꣢भिः ॥११३५॥

स्वर सहित पद पाठ

आ । मि꣣त्रे꣢ । मि꣣ । त्रे꣢ । व꣡रु꣢꣯णे । भ꣡गे꣢꣯ । म꣡धोः꣢꣯ । प꣣वन्ते । ऊर्म꣡यः꣢ । वि꣣दानाः꣢ । अ꣣स्य । श꣡क्म꣢꣯भिः ॥११३५॥


स्वर रहित मन्त्र

आ मित्रे वरुणे भगे मधोः पवन्त ऊर्मयः । विदाना अस्य शक्मभिः ॥११३५॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । मित्रे । मि । त्रे । वरुणे । भगे । मधोः । पवन्ते । ऊर्मयः । विदानाः । अस्य । शक्मभिः ॥११३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1135
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
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पदार्थ -

१. (मित्रे) = [क] सबके साथ स्नेह करनेवाले में अथवा [ख] प्रमीते: त्रायते, अपने को पापों से बचानेवाले में, २. (वरुणे) = [क] वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः, अपने को श्रेष्ठ बनानेवाले में अथवा, [ख] वारयति–काम-क्रोधादि का निवारण करनेवाले में, ३. (भगे) = [क] भजते- प्रभु की उपासना करनेवाले में, [ख] अथवा धर्मकार्यों का सेवन करनेवाले में [ ऋ० १.१३६.६ द०] (मधोः) = सोम की, वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है, अर्थात् सोम की शक्ति की (ऊर्मयः) = तरंगें (आपवन्ते) = समन्तात् गति करती हैं। वस्तुत: ‘राग-द्वेष, पापकर्मों में फँसना, श्रेष्ठ बनने का ऊँचा लक्ष्य न होना, कामक्रोधादि का शिकार होते रहना, प्रभु की ओर न झुककर पार्थिव भोगों की वृत्तिवाला होना, धर्मकार्यों में न लगना' ये सब ऐसी बातें हैं जो वीर्य की रक्षा में सहायक नहीं होती। ये 'शोक, मोह, क्रोध' सभी ब्रह्मचारी के लिए इसी दृष्टिकोण से वर्जित हैं। ‘मित्रे वरुणे' का अर्थ ‘प्राणापान की साधना करनेवाले में' यह भी है । प्राणापान की साधना भी वीर्य रक्षा का महान् साधन है । अस्य- इस सुरक्षित सोम की शक्मभिः=शक्तियों से ये 'मित्र, वरुण और भग' विदाना:-ज्ञानी बनते हैं। सोम ही ज्ञानाग्नि का ईंधन है ।

भावार्थ -

हम मित्र, वरुण और भग बनकर सोम की ऊर्ध्वगतिवाले हों और इस सोम की शक्ति से अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करें ।

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