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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1193
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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वा꣣श्रा꣡ अ꣢र्ष꣣न्ती꣡न्द꣢वो꣣ऽभि꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣡ गभ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥

स्वर सहित पद पाठ

वा꣣श्राः꣢ । अ꣣र्षन्ति । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣢ । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥


स्वर रहित मन्त्र

वाश्रा अर्षन्तीन्दवोऽभि वत्सं न मातरः । दधन्विरे गभस्त्योः ॥११९३॥


स्वर रहित पद पाठ

वाश्राः । अर्षन्ति । इन्दवः । अभि । वत्सम् । न । मातरः । दधन्विरे । गभस्त्योः ॥११९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1193
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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पदार्थ -

(वाश्राः) = उत्तम ज्ञानमयी वाणियों का उच्चारण करनेवाले (इन्दवः) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले आचार्य (अर्षन्ति) = हमें उसी प्रकार प्राप्त होते हैं (न) = जैसे (अभिवत्सम्) = बछड़े की ओर (मातरः) = उनकी माताएँ—
गौवें प्राप्त होती हैं। गौ का अपने बछड़े के प्रति प्रेम लोकविदित है । वेद को भी प्रेम के विषय में यह उपमा प्रिय है (‘अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या') = एक दूसरे से ऐसा प्रेम करो जैसे गौ बछड़े से करती है। ये आचार्य हमें (गभस्त्योः) = अपने हाथों में [गभस्ति-हाथ] (दधन्विरे) = धारण करते हैं। प्राचीन काल की मर्यादा के अनुसार माता-पिता सन्तानों को आचार्यों के हाथों में सौंप आते थे। आचार्य पर ही उनके निर्माण का सारा उत्तरदायित्व होता था । वेद में अन्यत्र कहा है कि ('आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः ') आचार्य ब्रह्मचारी को अपने समीप लाता हुआ गर्भ में धारण करता था । उसे अपने समीप अत्यन्त सुरक्षित रखकर ये आचार्य (गभस्त्योः) = [गभस्ति=A ray of light, sunbeam or moonbeam] ज्ञान की किरणों में— सूर्य के समान ब्रह्मज्योति में तथा चन्द्र के समान विज्ञान के प्रकाश में (दधन्विरे) = धारण करते हैं । ब्रह्मज्योति से यदि हम नि: श्रेयस की साधना कर पाते हैं तो विज्ञान की ज्योति से हमें अभ्युदय की प्राप्ति होती है । 'अभ्युदय और निः श्रेयस' को सिद्ध करनेवाला यह ज्ञान ही तो वस्तुतः धर्म है। 

भावार्थ -

हम आचार्यों के प्रिय हों। वे आचार्य हमें ब्रह्मज्ञान व विज्ञान की ज्योतियों को प्राप्त कराएँ ।

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