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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1205
ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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उ꣢त्ते꣣ शु꣡ष्मा꣢स ईरते꣣ सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मे꣡रि꣢व स्व꣣नः꣢ । वा꣣ण꣡स्य꣢ चोदया प꣣वि꣢म् ॥१२०५॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣢त् । ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯सः । ई꣣रते । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मेः꣢ । इ꣣व । स्वनः꣢ । वा꣣ण꣡स्य꣢ । चो꣣दय । पवि꣢म् ॥१२०५॥


स्वर रहित मन्त्र

उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः । वाणस्य चोदया पविम् ॥१२०५॥


स्वर रहित पद पाठ

उत् । ते । शुष्मासः । ईरते । सिन्धोः । ऊर्मेः । इव । स्वनः । वाणस्य । चोदय । पविम् ॥१२०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1205
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करने में लगा हुआ 'उचथ्य' है । यह सब व्यसनों व अन्तःशत्रुओं से बचा रहने के कारण ‘आङ्गिरस' है । अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्तिवाला है। इस ‘उचथ्य' से प्रभु कहते हैं कि १. (ते शुष्मास:) = तेरे शत्रु-शोषक बल (उत् ईरते) = उच्च होते हैं, तेरी शक्तियाँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं। [२] (सिन्धोः ऊर्मे: इव स्वनः) = समुद्र के कल्लोलों [waves के समान तेरा स्वन [आवाज़ ] है] । रामायण में ‘पर्जन्यनिनदोपमः 'बादल की गर्जना के समान गर्जनावाला' शब्द का प्रयोग हुआ है । स्वस्थ, सबल मनुष्य की वाणी भी स्वस्थ व सबल होती है। (‘सिन्धोरूर्मे: इव स्वनः') इस वाक्यांश का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि [सिन्धु-स्यन्दमान सोमकण, ऊर्मि- ऊर्ध्वगति] शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति [रक्षा] के अनुपात में ही तेरी वाणी की सबलता है। जितना जितना 

मनुष्य शरीर में वीर्य को सुरक्षित रखता है, उतना ही वह उच्च, सबल ध्वनिवाला होता है। [३] हे उचथ्य ! तू (वाणस्य) = इस जीवनरूप शततन्त्रीकवीणा की [वाण - सौ तारोंवाली सितार] (पविम्) = वाणी को – स्वर को (चोदय) = प्रेरित कर । यह तेरा सौ वर्ष का जीवन सौ तारोंवाली सितार के समान हो और इस सितार से सदा पवित्र करनेवाली ध्वनि [पवि] निकलती रहे । सौ-के-सौ वर्ष शुभ, मङ्गल शब्दों का ही उच्चारण होता रहे ।

भावार्थ -

१. हम शक्तियों का विकास करें । २. वीर्यरक्षा द्वारा अपनी वाणी को सबल बनाएँ । ३. हमारी जीवनरूप शततन्त्रीकवीणा पवित्र वाणी का उच्चारण करे ।
 

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