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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1206
ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्र꣣सवे꣢ त꣣ उ꣡दी꣢रते ति꣣स्रो꣡ वाचो꣢꣯ मख꣣स्यु꣡वः꣢ । य꣢꣫दव्य꣣ ए꣢षि꣣ सा꣡न꣢वि ॥१२०६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣣सवे । प्र꣣ । सवे꣢ । ते꣣ । उ꣣त् । ई꣢रते । तिस्रः꣢ । वा꣡चः꣢꣯ । म꣣खस्यु꣡वः꣢ । यत् । अ꣡व्ये꣢꣯ । ए꣡षि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि ॥१२०६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रसवे त उदीरते तिस्रो वाचो मखस्युवः । यदव्य एषि सानवि ॥१२०६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रसवे । प्र । सवे । ते । उत् । ईरते । तिस्रः । वाचः । मखस्युवः । यत् । अव्ये । एषि । सानवि ॥१२०६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1206
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

उसी उचथ्य से कहते हैं कि १. तू जब (सानवि) = सर्वोच्च [सा काष्ठा सा परागतिः– प्रभु ही तो अन्तिम शरण हैं । वे परमेष्ठी हैं – सर्वोच्च स्थान में स्थित हैं], (अव्ये) = रक्षण में उत्तम [प्रभुस्मरण ही हमें वासनाओं से बचानेवाला है] प्रभु में (एषि) = गति करता है - अपने को प्रभु में स्थित होकर कार्य करनेवाला मानता है, तब २. (मखस्युव:) = यज्ञों के करनेवाले (ते प्रसवे) = तेरे प्रकृष्ट यज्ञों में (तिस्रः वाच:) = ऋग्, यजुः, सामरूप तीन वाणियाँ (उदीरते) = उच्चरित होती हैं । उचथ्य बड़े-बड़े यज्ञों में सदा प्रवृत्त रहता है, और उन यज्ञों में वेदवाणियों का उच्चारण करता है। इन सब यज्ञों का उसे गर्व नहीं होता, क्योंकि वह अनुभव करता है कि मेरी तो सारी गति उस प्रभु में ही हो रही है। सर्वोच्च स्थान में स्थित प्रभु में सुरक्षित होकर ही तो मैं इन कार्यों को कर पा रहा हूँ । 

भावार्थ -

१. हम सदा प्रभु में स्थित हों २. उत्कृष्ट यज्ञों में लगे रहें ३. वेदवाणियों का उच्चारण करें।

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