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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 124
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣दं꣡ व꣢सो सु꣣त꣢꣫मन्धः꣣ पि꣢बा꣣ सु꣡पू꣢र्णमु꣣द꣡र꣢म् । अ꣡ना꣢भयिन्ररि꣣मा꣡ ते꣢ ॥१२४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣द꣢म् । व꣣सो । सुत꣢म् । अ꣡न्धः꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ । सु꣡पू꣢꣯र्णम् । सु । पू꣣र्णम् । उद꣡र꣢म् । उ꣣ । द꣡र꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯भयिन् । अन् । आ꣣भयिन् । ररिम꣢ । ते꣣ ॥१२४॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं वसो सुतमन्धः पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥१२४॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम् । वसो । सुतम् । अन्धः । पिब । सुपूर्णम् । सु । पूर्णम् । उदरम् । उ । दरम् । अनाभयिन् । अन् । आभयिन् । ररिम । ते ॥१२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 124
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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विषय - सोम का पान
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वसो )= उत्तम ढङ्ग से शरीर में निवास करनेवाले जीव ! (इदं अन्धः) = यह सोम (सुतम्) = उत्पन्न किया गया है। प्रभु ने इस शरीर की रचना इस प्रकार की है कि उसमें आहार से रस, रस से रुधिर और रुधिर से मांसादि के क्रम से सातवें स्थान में वीर्य=सोम की उत्पत्ति होती है। जिस जीव को इस शरीर में उत्तम ढङ्ग से रहना हो उसके लिए आवश्यक है कि वह सोम की रक्षा करे। ('मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्') = इस सोम के बिन्दु के गिरने से हम मृत्यु के मार्ग पर जाते हैं और इसकी रक्षा से जीवन के मार्ग पर। एवं, यह सदा सब दृष्टिकोणों से [ समन्तात् = आ] ध्यान देने योग्य होता है, इसीलिए इसे ‘अन्धः' [आध्यानीय] कहा गया है। प्रभु ने इस अद्भुत सोम के उत्पादन की व्यवस्था तो कर दी है, अब जीव का कर्त्तव्य है कि वह प्रभु के इस उपदेश को क्रियारूप में लाये कि (‘पिब') = इसका तुम पान करो। इस वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करो। इसकी रक्षा से यह (सुपूर्णम्) = तुम्हारा उत्तम प्रकार से पालन व पूरण करेगा और (अरम्) = तुम्हारे जीवन को सद्गुणों से अलंकृत कर देगा [अरं = to decorate] । वीर्य रक्षा जहाँ हमें अशुभ वृत्तियों से बचाएगी वहीं उत्तम गुणों से अलंकृत भी करेगी। हमारे शरीर नीरोग होंगे, मन विशाल होंगे और बुद्धियाँ तीव्र होंगी। उस समय हम निर्भीक होकर इस जीवन-यात्रा में आगे और आगे बढ़ पायेंगे।
प्रभु जीव को सम्बोधिस करते हैं कि (अनाभियन्) = हे निर्भिक जीव! (ते) = तुझे (ररिमा) = हमने यही तो एक देन दी है। परमेश्वर की दी हुई वस्तुओं में सर्वोत्तम वस्तु यह वीर्य ही है। वेद-ज्ञान क्या इससे अच्छा नहीं है? ऐसा प्रश्न हो सकता है। इसका उत्तर यह है कि उस वेद-ज्ञान का साधन भी तो वीर्यशक्ति की रक्षा ही है। प्रभु - प्रदत्त इस सर्वोत्तम वस्तु की हमें रक्षा करनी ही चाहिए। इसकी रक्षा से ही हम ज्ञान प्राप्त करके इस मन्त्र के ऋषि 'मेधातिथि काण्व' बन सकेंगे।
भावार्थ -
प्रभु ने वीर्य की उत्पत्ति की व्यवस्था की है। यह प्रभु द्वारा प्रदान की गई सर्वोत्तम वस्तु है। हम इसकी रक्षा करें और निर्भीक बनें।
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