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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1257
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ए꣣ष꣡ विप्रै꣢꣯र꣣भि꣡ष्टु꣢तो꣣ऽपो꣢ दे꣣वो꣡ वि गा꣢हते । द꣢ध꣣द्र꣡त्ना꣢नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । वि꣡प्रैः꣢꣯ । वि । प्रैः꣣ । अभि꣡ष्टु꣢तः । अ꣣भि꣢ । स्तु꣣तः । अपः꣢ । दे꣣वः꣢ । वि । गा꣣हते । द꣡ध꣢꣯त् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
स्वर रहित मन्त्र
एष विप्रैरभिष्टुतोऽपो देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥१२५७॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । विप्रैः । वि । प्रैः । अभिष्टुतः । अभि । स्तुतः । अपः । देवः । वि । गाहते । दधत् । रत्नानि । दाशुषे ॥१२५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1257
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु का प्रजाओं में प्रवेश [ तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ]
पदार्थ -
१. जीव शरीर में प्रवेश करता है और प्रभु जीवों में प्रविष्ट होकर रहते हैं, परन्तु कब ? जब (एषः) = यह सर्वव्यापक (देवः) = प्रभु (विप्रैः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवालों से (अभिष्टुतः) = स्तुत होते हैं । वैसे तो वे प्रभु प्राणिमात्र में क्या भूतमात्र में रह रहे हैं, सर्वव्यापकता के नाते वे कण-कण में विद्यमान हैं, परन्तु प्रभु का प्रकाश तो इन स्तोताओं में ही होता है जो अपनी कमियों को दूर करते हैं । २. जब हम अपनी न्यूनताओं को दूर कर उस प्रभु की स्तुति करते हैं तब (देवः) = ये दिव्य प्रभु (अपः) = कर्मशील प्रजाओं में (विगाहते) = प्रवेश करते हैं, अर्थात् ये विप्र उस प्रभु का प्रकाश अपने अन्दर देखते हैं। ३. अन्त:- प्रविष्ट प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए (रत्नानि दधत्) = रत्नों को धारण करते हैं । जो व्यक्ति दान देता है तथा प्रभु के प्रति अपना समर्पण करता है, प्रभु उसे रमणीय धन प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ -
जीव का कल्याण इसी में है कि — १. वह ‘विप्र' बने - अपनी न्यूनताओं को दूर करके अपना पूरण करे, २. अप:- कर्मशील बने, ३. दाश्वान्- दाता और प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाला हो। ऐसा करने पर ही यह वास्तविक सुख का निर्माण करनेवाला ‘शुन:शेप' होगा । गर्त=स्तुत्य प्रभु की ओर गति करनेवाला [अज्] यह सचमुच 'आजीगर्ति' हो जाएगा ।
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