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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 126
ऋषिः - सुकक्षश्रुतकक्षौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢द꣣द्य꣡ कच्च꣢꣯ वृत्रहन्नु꣣द꣡गा꣢ अ꣣भि꣡ सू꣢र्य । स꣢र्वं꣣ त꣡दि꣢न्द्र ते꣣ व꣡शे꣢ ॥१२६॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । कत् । च꣣ । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । उद꣡गाः꣢ । उ꣣त् । अ꣡गाः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । सू꣣र्य । स꣡र्व꣢꣯म् । तत् । इ꣣न्द्र । ते । व꣡शे꣢꣯ ॥१२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥१२६॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । अद्य । अ । द्य । कत् । च । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । उदगाः । उत् । अगाः । अभि । सूर्य । सर्वम् । तत् । इन्द्र । ते । वशे ॥१२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 126
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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विषय - आज या फिर कभी
पदार्थ -
गत मन्त्र में सूर्योदय का वर्णन था कि 'ज्ञान को ही धन समझनेवाले, लोगों पर सुखों की वर्षा करनेवाले, प्रत्येक कर्म को लोकहित को सामने रखकर करनेवाले, काम-क्रोधादि वासनाओं को परे फेंकनेवाले' के हृदयाकाश में प्रभु की ज्योति का उदय होता है। जो भी व्यक्ति इस प्रकार इन चार दिशाओं में प्रयत्नशील होगा उसके हृदय में यह ज्योति अवश्य उदित होगी, परन्तु एक सच्चा भक्त अनुभव करता है कि निरन्तर वासनाओं को परे फेंकने
का प्रयत्न करता हुआ भी वह उन्हें जीत नही पाता। यह विजय तो प्रभुकृपा से ही होगी। ऐसा अनुभव करके वह कह उठता है कि (सर्वं तत्) = यह सब-कुछ (इन्द्र) = हे सर्वैश्वर्यसम्पन्न प्रभो! (ते वशे) = आपके ही वश में है। जब तक सूर्य को बादलों ने ढका होता है तबतक सूर्य की ज्योति दीखती नहीं, इसी प्रकार सूर्य को ढकनेवाले बादलरूप वृत्रों की भाँति यहाँ वासनारूप वृत्र प्रभु - ज्योति को हमसे आवृत रखता है। इस वृत्र को हमें तो क्या मारना है! हे प्रभो! (वृत्रहन्)=वृत्र को मारनेवाले! इस वृत्र को आप ही समाप्त करेंगे। (यद् अद्य)= यदि आज समाप्त करें तो आपकी कृपा, (कत् च) = और यदि फिर कभी समाप्त करें तो आपकी कृपा। करना तो आपको ही है। (सूर्य) = हजारों सूर्यों की दीप्ति के समान चमकनेवाले प्रभो! आप कृपा करके (अभि)= मेरी ओर मेरे हृदयाकाश में (उदगा:) = शीघ्र उदित होओ।
भक्त को चाहिए कि अपना पग बढ़ाता चले, अपने पुरुषार्थ में कमी न आने दे और प्रभु से आराधना करता चले। यही सच्चा समर्पण है। यही सच्चा ज्ञान है, इसी को अपनी शरण बनानेवाला ‘श्रुतकक्ष' इस मन्त्र का ऋषि है। इससे उत्तम शरण हो ही नहीं सकती, अतः वह 'सु - कक्ष' है।
भावार्थ -
हम वृत्र का नाश कर ज्ञानसूर्य के उदय के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हों और प्रभुकृपा में विश्वास रक्खें।
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