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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 132
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣣य꣡मि꣢न्द्र त्वा꣣य꣢वो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नुमो वृषन् । वि꣣द्धी꣢ त्वा३꣱स्य꣡ नो꣢ वसो ॥१३२॥
स्वर सहित पद पाठव꣣य꣢म् । इ꣣न्द्र । त्वाय꣡वः꣢ । अ꣣भि꣢ । प्र । नो꣣नुमः । वृषन् । विद्धि꣢ । तु । अ꣣स्य꣢ । नः꣣ । वसो ॥१३२॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमिन्द्र त्वायवोऽभि प्र नोनुमो वृषन् । विद्धी त्वा३स्य नो वसो ॥१३२॥
स्वर रहित पद पाठ
वयम् । इन्द्र । त्वायवः । अभि । प्र । नोनुमः । वृषन् । विद्धि । तु । अस्य । नः । वसो ॥१३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 132
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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विषय - हमें तो आत्मा को ही अपनाना है
पदार्थ -
सामान्यतः संसार के विषय ऐसे लुभावने हैं कि मनुष्य उनसे आकृष्ट होकर उनमें उलझ जाता है। धन ही उसका आराध्य देव बन जाता है और सभी साधनों से वह उसके सञ्चय में जुट जाता है। सांसारिक भोग आपातरमणीय हैं। ये विषय प्रारम्भ में अमृतोपम लगते हुए भी परिणाम में विषतुल्य होते हैं। हमारी सभी इन्द्रिय - शक्तियों को ये जीर्ण कर देते हैं। इस प्रकार इन सांसारिक विषयों के परिणाम को देखता व सोचता हुआ व्यक्ति कभी भी इनकी आकांक्षा नहीं कर सकता।
काम-क्रोध को वशीभूत करनेवाला 'वसिष्ठ' भी कहता है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (वयम्)=हम सब (त्वायवः) = तुझे ही चाहनेवाले हैं। हे (वृषन्) = सुखों की वर्षा करनेवाले प्रभो! (अभि) = आपको लक्ष्य करके हम (प्रनोनुमः) = बारम्बार स्तुति करते हैं। आप परमैश्वर्यशाली हैं और सब सुखों की वर्षा करनेवाले हैं, अतः आपको पाकर किस वस्तु की कमी रह जाएगी? वे वस्तुएँ सान्त हैं, आप अनन्त हैं। सान्त के लिए अनन्त को छोड़ना बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती। ये सान्त भोग्य पदार्थ कितने भी मधुर व आकर्षक हों, परन्तु हमने तो निश्चय कर लिया है कि आपको ही पाना है। हे (वसो) = उत्तम निवास के साधक प्रभो! (नः) = हमारे (अस्य) = इस निश्चय को (तु) = तो (विद्धि) = आप समझ लीजिए। हमें आत्मा व परमात्मा के तत्त्व को ही जानना है–विषयों की हमें चाहना नहीं। इस चाह को वशीभूत करके ही मैं इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ’ बना हूँ और वसिष्ठ बनने के लिए ही 'मैत्रावरुणि' = प्राणापान की साधना करनेवाला हुआ हूँ।
भावार्थ -
हमारा यह निश्चय हो कि हमें प्रभु को पाना है। उसके लिए हम वसिष्ठ बनें।
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