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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 131
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡पि꣢बत्क꣣द्रु꣡वः꣢ सु꣣त꣡मिन्द्रः꣢꣯ स꣣ह꣡स्र꣢बाह्वे । त꣡त्रा꣢ददिष्ट꣣ पौ꣡ꣳस्य꣢म् ॥१३१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡पि꣢꣯बत् । क꣣द्रु꣡वः꣢ । क꣣त् । द्रु꣡वः꣢꣯ । सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । स꣣ह꣡स्र꣢बाह्वे । स꣣ह꣡स्र꣢ । बा꣣ह्वे । त꣡त्र꣢꣯ । अ꣣ददिष्ट । पौँ꣡स्य꣢꣯म् । ॥१३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपिबत्कद्रुवः सुतमिन्द्रः सहस्रबाह्वे । तत्राददिष्ट पौꣳस्यम् ॥१३१॥
स्वर रहित पद पाठ
अपिबत् । कद्रुवः । कत् । द्रुवः । सुतम् । इन्द्रः । सहस्रबाह्वे । सहस्र । बाह्वे । तत्र । अददिष्ट । पौँस्यम् । ॥१३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 131
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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विषय - कुटिलता से दूर
पदार्थ -
जब मनुष्य अल्पधन अर्थात् सांसारिक सम्पत्ति को महाधन का स्थान देकर उसे अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है तब वह टेढ़े-मेढ़े सभी साधनों से [by hook or crook] इसे कमाने में लग जाता है। उस समय यह धन का दास बन जाता है। इसका जीवन कुटिलता से भर जाता है। ‘कम-से-कम श्रम से किस प्रकार अधिक-से-अधिक धन कमा लूँ' यही सदा उसके चिन्तन का विषय बना रहता है। इस कार्य में वह सारी नैतिकता को तिलाञ्जलि दे देता है और इस प्रकार धनार्जन करता हुआ निधन= मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है। सर्प के समान कुटिल आचरणवाला बनकर वह सचमुच सर्प ही बन जाता है। लोभाविष्ट हो यह किन-किन कुटिलताओं को स्वीकार करता है, यह सोचकर ही अत्यन्त आश्चर्य होता है। यह आत्मिकशक्ति से शून्य हो वासनाओं का ही शिकार हो जाता है। यह इन्द्र जिस दिन (कद्रुवः)=सर्पिणी के (सुतम्) = पुत्र को अर्थात् इस कुटिलता की वृत्ति को (अपिबत्) = पी जाता है, अर्थात् समाप्त कर देता है, उस दिन (इन्द्रः) = इन्द्र होता है, बाह्य ऐश्वर्य को महत्त्व न देकर आन्तर ऐश्वर्य को महत्त्व देनेवाला यह सचमुच ‘इन्द्र:=परमैश्वर्यशाली बनता है। यहाँ 'कद्रूः' शब्द का प्रयोग है– [कत्+रु] 'बुरी तरह से रुलानेवाली ।' यह कुटिलता की वृत्ति आरम्भ में चाहे कितना ही ऐश्वर्य प्राप्त कराती प्रतीत हो, परन्तु अन्त में रुलानेवाली ही है। इस तत्त्व को समझकर मनुष्य जब इसे समाप्त करता है तभी वह 'इन्द्र' बनता है। अब वह (‘सहस्रबाह्वे’)=शतशः प्रयत्नों के लिए होता है। ‘प्रयत्न करना'='कुटिलता से हथियाना' उसकी यह वृत्ति समाप्त हो जाती है, अब वह प्रयत्न का पक्षपाती होता है और (तत्र) = इस प्रयत्न में ही वह (पौंस्यम्) = शक्ति को (आददिष्ट) = धारण करता है। कुटिलता उसे पौरुष से दूर ले, - जा रही थी, प्रयत्न असे पौरुष प्राप्त कराता है। प्रयत्न से पौरुष को प्राप्त कर हम अपने अन्दर दिव्यता को ला रहे होते हैं। इस दिव्यता से हमारा सारा सूक्ष्म शरीर - प्राणमयकोश, मनोमयकोश तथा विज्ञानमयकोश दीप्त हो उठता है, हम इन तीनों को दीप्त करके 'त्रिशोक [शुच दीप्तौ] बन जाते हैं। ऐसा बनना ही बुद्धिमत्ता है, मेधाविता है - अतः हम ‘काण्व' मेधावीपुत्र कहलाते हैं।
भावार्थ -
हम अन्त में रुलानेवाली कुटिलता से दूर होकर, प्रयत्न व पौरुष को अपनानेवाले ‘इन्द्र' बनें।