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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1343
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
6
क꣣दा꣡ मर्त꣢꣯मरा꣣ध꣡सं꣢ प꣣दा꣡ क्षुम्प꣢꣯मिव स्फुरत् । क꣣दा꣡ नः꣢꣯ शुश्रव꣣द्गि꣢र꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४३॥
स्वर सहित पद पाठक꣣दा꣢ । म꣡र्त꣢꣯म् । अ꣣राध꣡स꣢म् । अ꣣ । राध꣡स꣢म् । प꣣दा꣢ । क्षु꣡म्प꣢꣯म् । इ꣡व । स्फुरत् । कदा꣢ । नः꣣ । शुश्रवत् । गि꣡रः꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४३॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा मर्तमराधसं पदा क्षुम्पमिव स्फुरत् । कदा नः शुश्रवद्गिर इन्द्रो अङ्ग ॥१३४३॥
स्वर रहित पद पाठ
कदा । मर्तम् । अराधसम् । अ । राधसम् । पदा । क्षुम्पम् । इव । स्फुरत् । कदा । नः । शुश्रवत् । गिरः । इन्द्रः । अङ्ग ॥१३४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1343
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - अ-यज्ञशील का नाश
पदार्थ -
हे (अङ्ग) = प्रिय! तू इस बात को समझ ले कि (क-दा:) = वह सब सुखों का देनेवाला प्रभु (अराधसम्) = ऐश्वर्यशाली बन करके भी यज्ञादि को सिद्ध न करनेवाले (मर्तम्) = भोगविलासों के पीछे मरनेवाले मनुष्य को इस प्रकार (स्फुरत्) = नष्ट कर देता है (इव) = जैसे (पदा) = पावों से (क्षुम्पम्) = हम अहिछत्रक [गली खुम्भ] को नष्ट कर देते हैं— फोड़ देते हैं । वे प्रभु इन ऐश्वर्य के मद से मत्त भोगविलासग्रसित मनुष्यों को नष्ट कर देते हैं । ऐश्वर्य का सर्वोत्तम विनियोग यज्ञ ही है। मनुष्य को यज्ञों में ही धन-सम्पत्ति का विनियोग करना चाहिए । यही सच्ची प्रभु-पूजा है ।
(कदाः) = वे सब सुखों के देनेवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारी (गिरः) = वाणियों को (शुश्रवत्) = सुनते हैं। प्रभु उन्हीं की प्रार्थना सुनते हैं जो कि 'सुतावान्'– यज्ञशील बनकर प्रभु की परिचर्या करते हैं ।
भावार्थ -
हम ऐश्वर्यों का प्रयोग विलास में न कर लोक-विकास में करें । अन्यथा हम प्रभु के प्रिय न होंगे। सब सुखों के देनेवाले वे प्रभु हम अयज्ञियों को तो ठुकरा ही देंगे।
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