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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1342
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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य꣢श्चि꣣द्धि꣡ त्वा꣢ ब꣣हु꣢भ्य꣣ आ꣢ सु꣣ता꣡वा꣢ꣳ आ꣣वि꣡वा꣢सति । उ꣣ग्रं꣡ तत्प꣢꣯त्यते꣣ श꣢व꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४२॥

स्वर सहित पद पाठ

यः । चि꣣त् । हि꣢ । त्वा꣣ । बहु꣡भ्यः꣢ । आ । सु꣣ता꣢वा꣢न् । आ꣣वि꣡वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । उ꣣ग्र꣢म् । तत् । प꣣त्यते । श꣡वः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४२॥


स्वर रहित मन्त्र

यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाꣳ आविवासति । उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग ॥१३४२॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । चित् । हि । त्वा । बहुभ्यः । आ । सुतावान् । आविवासति । आ । विवासति । उग्रम् । तत् । पत्यते । शवः । इन्द्र । अङ्ग ॥१३४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1342
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे (अङ्ग) = [अगि गतौ] सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो ! (बहुभ्यः) = इन [बृंहते वर्धते इति बहु] ऐश्वर्यों से बढ़े हुए लोगों में से (यः चित् हि) = जो भी निश्चय से (सुतावान्) = यज्ञोंवाला बनकर (त्वा) = आपकी (आविवासति) = परिचर्या करता है, (तत्) = वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (उग्रं शव:) = तेजस्वीशत्रुविनाशक-बल को (पत्यते) = प्राप्त होता है ।

सामान्यत: संसार में ऐश्वर्य पाकर कोई बिरला पुरुष ही यज्ञमय प्रवृत्तिवाला बनता है। भोगों में लिप्त होकर मनुष्य लोकहित को अपने जीवन का ध्येय नहीं बना पाता, परन्तु यदि एक-आध व्यक्ति ऐश्वर्य प्राप्त कर लोकहित करता हुआ यज्ञमय जीवन बिताता है तो वह वस्तुतः प्रभु का सच्चा उपासक होता है। प्रभु की उपासना लोकहित के द्वारा ही होती है । इस लोकहित में लगे हुए प्रभु के उपासक को 'उग्र शक्ति' प्राप्त होती है । इस उग्र शक्ति के द्वारा सब विघ्न-बाधाओं को जीतता हुआ वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ता चलता है ।

भावार्थ -

यज्ञमय जीवन से प्रभु-उपासक उग्र शक्ति प्राप्त करता है । इसकी इन्द्रियाँ अन्त तक तेजस्वी बनी रहती हैं, अतः यह 'गोतम' होता है और यज्ञों में ऐश्वर्य का त्याग करनेवाला यह 'राहूगण' कहलाता है [रह त्यागे] ।

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