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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1342
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    29

    य꣢श्चि꣣द्धि꣡ त्वा꣢ ब꣣हु꣢भ्य꣣ आ꣢ सु꣣ता꣡वा꣢ꣳ आ꣣वि꣡वा꣢सति । उ꣣ग्रं꣡ तत्प꣢꣯त्यते꣣ श꣢व꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । चि꣣त् । हि꣢ । त्वा꣣ । बहु꣡भ्यः꣢ । आ । सु꣣ता꣢वा꣢न् । आ꣣वि꣡वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । उ꣣ग्र꣢म् । तत् । प꣣त्यते । श꣡वः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाꣳ आविवासति । उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग ॥१३४२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः । चित् । हि । त्वा । बहुभ्यः । आ । सुतावान् । आविवासति । आ । विवासति । उग्रम् । तत् । पत्यते । शवः । इन्द्र । अङ्ग ॥१३४२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1342
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे परमात्मन् ! (बहुभ्यः आ) बहुतों में से (यः चित् हि) जो (सुतावान्) श्रद्धारस को बहानेवाला होकर (त्वा) आपकी (आ विवासति) पूजा करता है, वह (तत्) अद्वितीय (उग्रं शवः) प्रचण्ड आत्मबल (पत्यते) प्राप्त कर लेता है। (अङ्ग) हे परमात्मन् ! वह आप (इन्द्रः) इन्द्र नामवाले हो ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे राजन् ! (यः चित् हि) जो प्रजाजन (बहुभ्यः) बहुतों में से (आ) लाकर, चुनकर (सुतावान्) आपका अभिषेक करके (त्वा) आपको (आ विवासति) सत्कृत करता है, वह (तत्) अद्वितीय, (उग्रं शवः) प्रचण्ड बल (पत्यते) प्राप्त कर लेता है। (अङ्ग) हे राजन् ! वह आप (इन्द्रः) इन्द्र नाम से कहे जाते हो ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर अपने स्तोताओं को आत्मबल देता है, वैसे ही राष्ट्र में राजा भी प्रजाजनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करे ॥२॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा! (बहुभ्यः) बहेुतरे मनुष्यों में से (यः कः-चित्) जो कोई—विरला ही (सुतावत्) उपासना रसवाला (त्वा-अविवासति) तेरी समन्तरूप से परिचर्या१ उपासना करता है (अङ्ग) शीघ्र ही वह (उग्रं शवः) तेजस्वी बल को (पत्यते) प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    उग्र शक्ति की प्राप्ति

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) = [अगि गतौ] सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो ! (बहुभ्यः) = इन [बृंहते वर्धते इति बहु] ऐश्वर्यों से बढ़े हुए लोगों में से (यः चित् हि) = जो भी निश्चय से (सुतावान्) = यज्ञोंवाला बनकर (त्वा) = आपकी (आविवासति) = परिचर्या करता है, (तत्) = वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (उग्रं शव:) = तेजस्वीशत्रुविनाशक-बल को (पत्यते) = प्राप्त होता है ।

    सामान्यत: संसार में ऐश्वर्य पाकर कोई बिरला पुरुष ही यज्ञमय प्रवृत्तिवाला बनता है। भोगों में लिप्त होकर मनुष्य लोकहित को अपने जीवन का ध्येय नहीं बना पाता, परन्तु यदि एक-आध व्यक्ति ऐश्वर्य प्राप्त कर लोकहित करता हुआ यज्ञमय जीवन बिताता है तो वह वस्तुतः प्रभु का सच्चा उपासक होता है। प्रभु की उपासना लोकहित के द्वारा ही होती है । इस लोकहित में लगे हुए प्रभु के उपासक को 'उग्र शक्ति' प्राप्त होती है । इस उग्र शक्ति के द्वारा सब विघ्न-बाधाओं को जीतता हुआ वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ता चलता है ।

    भावार्थ

    यज्ञमय जीवन से प्रभु-उपासक उग्र शक्ति प्राप्त करता है । इसकी इन्द्रियाँ अन्त तक तेजस्वी बनी रहती हैं, अतः यह 'गोतम' होता है और यज्ञों में ऐश्वर्य का त्याग करनेवाला यह 'राहूगण' कहलाता है [रह त्यागे] ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (बहुभ्यः) बहुत से पुरुषों में से (यः चित् हि) जो कोई भी (सुतावान्) ज्ञान योग से प्राप्त ब्रह्मानन्द रस के निष्पादक इस परमात्मा का स्वरूप (आविवासति) साक्षात् देख लेता है (अङ्ग) हे नर ! (इन्द्रः) परमेश्वर उसको शीघ्र ही (तत्) वह (उग्रं शवः) उग्र, वीर्य सम्पन्न बल (पत्यते) प्रदान करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे परमात्मन् ! (बहुभ्यः आ) अनेकेभ्यः (यः चित् हि) यः खलु (सुतावान्) अभिषुतश्रद्धारसः (त्वा) त्वाम् (आ विवासति) पूजयति सः (तत्) अद्वितीयम् (उग्रं शवः) प्रचण्डम् आत्मबलम् (पत्यते) प्राप्नोति। [पत्लृ पतने, भ्वादिः, व्यत्ययेन श्यन्।] (अङ्ग) हे भद्र ! स त्वम् (इन्द्रः) इन्द्रनामा असि ॥ द्वितीयः—नृपतिपरः। हे राजन् ! (यः चित् हि) यः खलु प्रजाजनः (बहुभ्यः) अनेकेभ्यः (आ) आनीय निर्वाच्य (सुतावान्) कृताभिषेकः (त्वा) त्वाम् (आ विवासति) सत्करोति, सः (तत्) अद्वितीयम् (उग्रं शवः) प्रचण्डं बलम् (पत्यते) प्राप्नोति। (अङ्ग) हे भद्र ! स त्वम् (इन्द्रः) इन्द्रनाम्ना कीर्त्यसे ॥२॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरः स्वस्तोतृभ्य आत्मबलं प्रयच्छति तथैव राष्ट्रे नृपतिरपि प्रजाजनेष्वात्मविश्वासमुत्पादयेत् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O man, whoever amongst the multitude, manifestly realises God, him docs He grant tremendous power !

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    Meaning

    Dear friend, it is Indra, creator of energy, vitality and the joy of soma, who, for the sake of many does special favours to you and makes you shine, and it is he, again, who controls violent force, that which could be anywhere. (Rg. 1-84-9)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (बहुभ्यः) મોટા ભાગના મનુષ્યોમાંથી (यः कः चित्) જે કોઈ વિરલ જ (सुतावत्) ઉપાસનારસવાળો (त्वा अविवासति) તારી સમગ્ર રૂપમાં પરિચર્યા ઉપાસના કરે છે. (अङ्ग) શીઘ્ર જ તે (उग्रं शवः) તેજસ્વી બળને (पत्यते) પ્રાપ્ત કરે છે. (
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर आपल्या स्तोत्यांना आत्मबल देतो, तसेच राष्ट्रात राजानेही प्रजाजनात आत्मविश्वास उत्पन्न करावा. ॥२॥

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