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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1350
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣡ग्ने꣢ सु꣣ख꣡त꣢मे꣣ र꣡थे꣢ दे꣣वा꣡ꣳ ई꣢डि꣣त꣡ आ व꣢꣯ह । अ꣢सि꣣ हो꣢ता꣣ म꣡नु꣢र्हितः ॥१३५०॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । सु꣣ख꣡त꣢मे । सु꣣ । ख꣡त꣢꣯मे । र꣡थे꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । ई꣣डितः꣢ । आ । व꣣ह । अ꣡सि꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣡नु꣢꣯र्हितः । म꣡नुः꣢꣯ । हि꣡तः ॥१३५०॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्ने सुखतमे रथे देवाꣳ ईडित आ वह । असि होता मनुर्हितः ॥१३५०॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । सुखतमे । सु । खतमे । रथे । देवान् । ईडितः । आ । वह । असि । होता । मनुर्हितः । मनुः । हितः ॥१३५०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1350
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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पदार्थ -

उल्लिखित यज्ञों का परिणाम यह होता है कि हमारी एक-एक इन्द्रिय [ख] उत्तम बनती [सु] है और हमारा यह शरीर सचमुच जीवन-यात्रा का साधक होने से 'रथ' कहलाने के योग्य होता है। इस शरीर में मेधातिथि प्रभु का स्तवन करता है और प्रभु से प्रार्थना करता है—(अग्ने) = हे मेरे रथ के अग्रेणी ! आप (ईडितः) = स्तुति किये जाकर (सुखतमे रथे) = हमारे इस शरीररूप रथ में जिसमें एक-एक इन्द्रिय [ख] अत्यन्त उत्तम [सु] बनी है, उस रथ में (देवान्) = दिव्य गुणों को (आवह) = समन्तात् प्राप्त कराइए, अर्थात् हम सब जगह से दिव्यता को ही ग्रहण करनेवाले बनें । हे प्रभो ! आप (होता असि) = सब उत्तमताओं के देनेवाले हैं (मनुः) = सब कुछ जानते हैं और (हितः) = मेरा अधिक-से-अधिक हित चाहने व करनेवाले हैं [benevolent and beneficent]।

भावार्थ -

हमारा शरीर रथ हो, एक-एक इन्द्रिय उत्तम हो, हम दिव्यता का वहन करें ।

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