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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1349
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - नराशंसः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
न꣢रा꣣श꣡ꣳस꣢मि꣣ह꣢ प्रि꣣य꣢म꣣स्मि꣢न्य꣣ज्ञ꣡ उप꣢꣯ ह्वये । म꣡धु꣢जिह्वꣳ हवि꣣ष्कृ꣡त꣢म् ॥१३४९॥
स्वर सहित पद पाठनरा꣣श꣡ꣳस꣢म् । इ꣣ह꣢ । प्रि꣣य꣢म् । अ꣣स्मि꣢न् । य꣣ज्ञे꣢ । उ꣡प꣢꣯ । ह्व꣢ये । म꣡धु꣢꣯जिह्वम् । म꣡धु꣢꣯ । जि꣣ह्वम् । हविष्कृ꣡त꣢म् । ह꣣विः । कृ꣡त꣢꣯म् ॥१३४९॥
स्वर रहित मन्त्र
नराशꣳसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वꣳ हविष्कृतम् ॥१३४९॥
स्वर रहित पद पाठ
नराशꣳसम् । इह । प्रियम् । अस्मिन् । यज्ञे । उप । ह्वये । मधुजिह्वम् । मधु । जिह्वम् । हविष्कृतम् । हविः । कृतम् ॥१३४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1349
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - कैसा उपदेशक ? 'मधुजिह्व', प्रभु का स्मरण
पदार्थ -
(इह) = जीवन में (अस्मिन् यज्ञे) = इन ज्ञानयज्ञों के निमित्त (उपह्वये) = विद्वानों को अपने समीप पुकारता हूँ। कैसे विद्वानों को ? १. (नराशंसम्) = उन्नतिशील नरों से प्रशंसनीय, अर्थात् धार्मिक वृत्तिवाले लोग जिसकी प्रशंसा करते हैं । आचारहीन विद्वान् के उपदेश का प्रभाव कभी सुन्दर नहीं हो सकता । २. (प्रियम्) = जो देखने में प्रिय है, जिसकी आकृति डरावनी नहीं, जो सदा त्योरी चढ़ाये नहीं रहते ३. (मधुजिह्वम्) = जिसकी जिह्वा में माधुर्य है- जो कभी कटुशब्दों का प्रयोग नहीं करता । ४. • (हविष्कृतम्) = जिसने अपने जीवन को हविरूप बना दिया है— लोकसंग्रह ही जिसके जीवन का मुख्य ध्येय है ।
ऐसे विद्वानों के द्वारा प्रणीत 'मधुमान् यज्ञों' में हम उस प्रभु का उपह्वये आह्वान करें जो १. (नराशंसम्) = अपने को अग्रस्थान में प्राप्त कराने के इच्छुक नरों से सदा शंसनीय है [नर - आशंस] २. (प्रियम्) = चाहने योग्य है तथा तृप्ति - सच्ची निर्वृति का अनुभव करानेवाला है [कान्ति-तर्पण] ३. (मधुजिह्व) = जिस प्रभु की वाणी अत्यन्त माधुर्यमयी है ४. (हविष्कृतम्) = जो प्रभु हविरूप हैं, जिन्होंने अपने को भी सदा जीव- हित के लिए दिया हुआ है [आत्मदा] ।
इस प्रकार इन यज्ञों में 'नराशंस' आदि रूप में प्रभु का स्मरण करते हुए हम भी 'नराशंसत्वादि' गुणों को अपने में धारण कर सकेंगे । यही मेधातिथित्व है- समझदारी से चलने का मार्ग है।
भावार्थ -
हमारे यज्ञों में 'मधुजिह्व' प्रभु का स्मरण हो और हम भी 'मधुजिह्व' बन जाएँ ।
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