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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1352
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - आदित्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
सु꣣प्रावी꣡र꣢स्तु꣣ स꣢꣫ क्षयः꣣ प्र꣡ नु याम꣢꣯न्त्सुदानवः । ये꣡ नो꣢ अ꣡ꣳहो꣢ऽति꣣पि꣡प्र꣢ति ॥१३५२॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣प्रावीः꣢ । सु꣣ । प्रावीः꣢ । अ꣣स्तु । सः꣢ । क्ष꣡यः꣢꣯ । प्र । नु । या꣡म꣢꣯न् । सु꣣दानवः । सु । दानवः । ये꣢ । नः꣣ । अ꣡ꣳहः꣢꣯ । अ꣣तिपि꣡प्र꣢ति । अ꣣ति । पि꣡प्र꣢꣯ति ॥१३५२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुप्रावीरस्तु स क्षयः प्र नु यामन्त्सुदानवः । ये नो अꣳहोऽतिपिप्रति ॥१३५२॥
स्वर रहित पद पाठ
सुप्रावीः । सु । प्रावीः । अस्तु । सः । क्षयः । प्र । नु । यामन् । सुदानवः । सु । दानवः । ये । नः । अꣳहः । अतिपिप्रति । अति । पिप्रति ॥१३५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1352
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - दान से सुरक्षित घर
पदार्थ -
१. (सः क्षयः) = वह घर [क्षि= निवास] (सुप्रावीः अस्तु) = उत्तम रक्षणवाला हो, अर्थात् उसपर पाप व दुःख के आक्रमण न हों । २. (नु) = और अब (प्रयामन्) = इस प्रकृष्ट जीवन-यात्रा में इस घर के लोग (सुदानवः) = उत्तम दान देनेवाले बने रहें, पात्रापात्र का विचार कर सदा सात्त्विक दान देनेवाले हों । ३. (ये नः) = हममें से जो भी (अंहः अतिपिप्रति) = अपने को पाप से पार ले-जाते हैं, अर्थात् जो भी व्यक्ति पाप से दूर होने का निश्चय करते हैं वे अपनी इस जीवन-यात्रा में सदा उत्तम दान देनेवाले बने रहते हैं, और इस उपाय के द्वारा अपने घर को पापों व कष्टों से बचाये रखते हैं।
पापों से पार होने की कामना होनी चाहिए, दान देना चाहिए और अपने घर को अशुभों व कष्टों से बचाना चाहिए। 'दान' शब्द के तीनों ही अर्थ हैं देना [दा-दाने], पापों का काटना [दाप् लवने], और अपना शोधन [दैप् शोधने]। ‘वसिष्ठ' सदा दान की वृत्ति को अपनाता है क्योंकि दान की विरोधी भावना ‘लोभ' है जो सब व्यसनों का मूल है। लोभ से काम-क्रोध पनपते हैं और मनुष्य अधिकाधिक विषयासक्त हो जाता है ।
भावार्थ -
वह घर सुरक्षित रहता है जहाँ कि दान की मर्यादा कभी टूटती नहीं ।
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