Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1368
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
ए꣣वा꣡मृता꣢꣯य म꣣हे꣡ क्षया꣢꣯य꣣ स꣢ शु꣣क्रो꣡ अ꣢र्ष दि꣣व्यः꣢ पी꣣यू꣡षः꣢ ॥१३६८॥
स्वर सहित पद पाठए꣣व꣢ । अ꣣मृ꣡ता꣢य । अ꣣ । मृ꣡ता꣢꣯य । म꣣हे꣢ । क्ष꣡या꣢꣯य । सः । शु꣣क्रः꣢ । अ꣣र्ष । दिव्यः꣢ । पी꣣यू꣡षः꣢ ॥१३६८॥
स्वर रहित मन्त्र
एवामृताय महे क्षयाय स शुक्रो अर्ष दिव्यः पीयूषः ॥१३६८॥
स्वर रहित पद पाठ
एव । अमृताय । अ । मृताय । महे । क्षयाय । सः । शुक्रः । अर्ष । दिव्यः । पीयूषः ॥१३६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1368
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - अमृतत्व तथा मोक्ष
पदार्थ -
हे सोम! (सः) = वह तू १. (शुक्र:) = [शुच दीप्तौ, शुक् गतौ] दीप्त है— अपनी रक्षा करनेवाले को दीप्ति प्राप्त करानेवाला है। तू शरीर के अन्दर सारी क्रियाशक्ति व गति का हेतु है । २. (दिव्य:) = तू सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाला है। मानव-जीवन को ज्योतिर्मय बनानेवाला है [दिव् चमकना] । ३. (पीयूष:) = तू अमृत है - जीवन का कारण है, मृत्यु के कारणभूत रोगों को नष्ट करनेवाला है (‘जीवनं बिन्दुधारणात्') अतएव तू पान करने योग्य है [पीय्+ऊष]। -
(एव) = तू सचमुच इस प्रकार का है । तू (अमृताय) = अमृतत्व की प्राप्ति के लिए तथा (महे क्षयाय) = महान् निवास के लिए (अर्ष) = गतिवाला हो । सोम से अमृतत्व की प्राप्ति होती है । यह रोगकृमियों का संहार करके मनुष्य को मृत्यु से बचाता है । यह शरीर को शान्त बनाकर मनुष्य को उसका ‘महान् निवास स्थान' प्राप्त कराता है । यह महान् निवास स्थान ही प्रभु हैं । ' प्रभु में निवास' ही मोक्ष कहलाता है । इस प्रकार ये सोम का पान करनेवाले ‘अग्नयः '=अपने जीवन में उन्नतिशील होते हैं, ‘धिष्ण्या:' उच्च स्थान की प्राप्ति के अधिकारी [worthy of a high place] बनते हैं और 'ऐश्वरा: '= ये ईश्वर के होते हैं । इनका मानस झुकाव प्रकृति की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है ।
भावार्थ -
हम इस बात को समझें कि सोम 'शुक्र है, दिव्य है, पीयूष है', अतएव यह अमृतत्व के लिए तथा महान् निवास की प्राप्ति के लिए होता है ।
इस भाष्य को एडिट करें