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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 137
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स꣡म꣢स्य म꣣न्य꣢वे꣣ वि꣢शो꣣ वि꣡श्वा꣢ नमन्त कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्रा꣡ये꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः ॥१३७॥
स्वर सहित पद पाठस꣢म् । अ꣣स्य । मन्य꣡वे꣢ । वि꣡शः꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । न꣣मन्त । कृष्ट꣡यः꣢ । स꣣मुद्राय । स꣣म् । उद्रा꣡य꣢ । इ꣣व । सि꣡न्ध꣢꣯वः । ॥१३७॥
स्वर रहित मन्त्र
समस्य मन्यवे विशो विश्वा नमन्त कृष्टयः । समुद्रायेव सिन्धवः ॥१३७॥
स्वर रहित पद पाठ
सम् । अस्य । मन्यवे । विशः । विश्वाः । नमन्त । कृष्टयः । समुद्राय । सम् । उद्राय । इव । सिन्धवः । ॥१३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 137
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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विषय - ज्ञान की ओर
पदार्थ -
गत मन्त्र में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि मनुष्य को 'प्रभु के चरणों में ज्ञान की ही भेंट रखनी है' यही विषय इस मन्त्र में भी प्रतिपादित किया गया है। (इव) = जैसे (सिन्धवः) = बहनेवाली नदियाँ (समुद्राय) = समुद्र के लिए (संनमन्त)= झुकती हैं अर्थात् समुद्र की ओर बहती चली जाती हैं, उसी प्रकार (विश्वा:) = इस संसार के अन्दर प्रविष्ट हुए हुए और अब प्रभु की गोद में प्रवेश की इच्छावाले, (कृष्टयः) = [कृष्=उखाड़ना] हृदयस्थली से वासनारूप घास-फँस को उखाड़ देने की इच्छावाले (विशः) = प्रजाजन (अस्य) = इस प्रभु के (मन्यवे) = ज्ञान के लिए, प्रभु से दिये गये वेद-ज्ञान के लिए (संनमन्त) = झुकते हैं अर्थात् प्रयत्नशील होते हैं।
इस प्रलोभनों से भरे संसार में ज्ञानाग्नि में ही वासनाएँ भस्म हुआ करती हैं। वासनाओं को भस्म करके ज्ञान मनुष्य को पवित्र बनाता है। ज्ञान के प्रकाश में ही ठीक मार्ग दीखता है। यह ज्ञान हमारे ऐहिक सुख व शान्ति का साधन तो होगा ही- मृत्यु के बाद यही हमारी परामुक्ति का कारण बनेगा, अतः अभ्युदय व निःश्रेयस का साधन होने से ज्ञान ही धर्म है।
ज्ञान की इस महिमा को अनुभव करते हुए काण्व - कण्वपुत्र अर्थात् मेधावी लोग इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए सतत यत्नशील होते हैं। ऐसे ही लोग प्रभु को प्रिय होते हैं, अतः वे ‘वत्स' कहलाते हैं। वत्स का निर्वचन ऐसा भी किया जा सकता है कि ‘वदतीति वत्सः'=मन्त्रों का उच्चारण करता है उनका व्यक्त प्रवचन करता है। यह वेद का अध्येता ही ज्ञानी बनता है और प्रभु चरणों में पहुँचने के योग्य होता है ।
भावार्थ -
हमारा लक्ष्य सदा ज्ञान की वृद्धि करते चलना हो ।
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