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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 138
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
दे꣣वा꣢ना꣣मि꣡दवो꣢꣯ म꣣ह꣡त्तदा वृ꣢꣯णीमहे व꣣य꣢म् । वृ꣡ष्णा꣢म꣣स्म꣡भ्य꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥१३८॥
स्वर सहित पद पाठदे꣣वा꣡ना꣢म् । इत् । अ꣡वः꣢꣯ । म꣣ह꣢त् । तत् । आ । वृ꣣णीमहे । वय꣢म् । वृ꣡ष्णा꣢꣯म् । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥१३८॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानामिदवो महत्तदा वृणीमहे वयम् । वृष्णामस्मभ्यमूतये ॥१३८॥
स्वर रहित पद पाठ
देवानाम् । इत् । अवः । महत् । तत् । आ । वृणीमहे । वयम् । वृष्णाम् । अस्मभ्यम् । ऊतये ॥१३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 138
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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विषय - सबसे महान् कार्य
पदार्थ -
इस संसार में सबसे महान् कार्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर इस वेदमन्त्र में इन शब्दों में दिया गया है कि( देवानाम् इत् अवः) = महत्-देवताओं का रक्षण सर्वमहान् कार्य है। इस शरीर में इन्द्रियाँ देव हैं, इनका अधिष्ठाता आत्मा महादेव है। इन इन्द्रियों की रक्षा करना ही मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए । ('वयम् तत् आवृणीमहे ') = हम इसी कार्य का सदा वरण करते हैं। मकान की रक्षा, सम्पत्ति का ध्यान, स्वास्थ्य का ध्यान, गृहस्थ का पालन–ये सब आवश्यक बातें हैं, परन्तु सबसे बेड़ी बात यह है कि हम अपनी इन्द्रियों की रक्षा करें।
ये इन्द्रियाँ वास्तव में तो (वृष्णाम्) = सुखों की वर्षा करनेवाली हैं। इन सुखवर्षक देवों के रक्षण को हम वरते हैं। वही इन्द्रियाँ जोकि सुरक्षित होकर हमपर सुखों की वर्षा करनेवाली हैं, विषयों में फँसकर हमारे नाश का कारण बनती हैं। जिन ज्ञानेन्द्रियों से प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करके हमें मृत्यु को तैरना है और ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके अमृत को पाना है-वही इन्द्रियाँ विषयासक्त होने पर अपवित्र नरक में डाल देती हैं, अतः हमारा यही महान् कर्तव्य है कि (अस्मभ्यम् ऊतये) = ये हमारी रक्षा के लिए हों। रक्षा की हुई इन्द्रियाँ हमारी सब अभिलाषाओं को सिद्ध करनेवाली होती हैं और असुरक्षित होने पर ये ही हमारे विनाश का कारण बन जाती हैं ।
जो व्यक्ति इन्द्रिय-रक्षारूप तप को अपनाता है, वह ओजस्वी होकर पनपता है, इस पृथिवी पर प्रतिष्ठित होता है, उसका नाश नहीं होता। इसीलिए वह 'कु-सीदी'=पृथिवी पर प्रतिष्ठित हानेवाला कहलाता है। एवं, बुद्धिमत्ता इन देवों की रक्षा में ही है। यह कुसीदी काण्व=मेधावी है। हमें भी चाहिए कि देव- रक्षा द्वारा कुसीदी काण्व बनें।
भावार्थ -
जितेन्द्रियता ही सर्वमहान् विजय है। हम इन्द्रियों [देवों] की रक्षा करेंगे तो ये इन्द्रियाँ हमारी रक्षा करेंगी।
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