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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 139
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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सो꣣मा꣢ना꣣ꣳ स्व꣡र꣢णं कृणु꣣हि꣡ ब्र꣢ह्मणस्पते । क꣣क्षी꣡व꣢न्तं꣣ य꣡ औ꣢शि꣣जः꣢ ॥१३९॥
स्वर सहित पद पाठसो꣣मा꣡ना꣢म् । स्व꣡र꣢꣯णम् । कृ꣣णुहि꣢ । ब्र꣣ह्मणः । पते । कक्षी꣡व꣢न्तम् । यः । औ꣣शिजः꣢ ॥१३९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमानाꣳ स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१३९॥
स्वर रहित पद पाठ
सोमानाम् । स्वरणम् । कृणुहि । ब्रह्मणः । पते । कक्षीवन्तम् । यः । औशिजः ॥१३९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 139
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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विषय - ज्ञान के चार परिणाम
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि 'मेधातिथि काण्व' है। यह मेधां अतति = निरन्तर मेधा की ओर चल रहा है। इसके सारे प्रयत्न ज्ञान प्राप्ति के लिए हैं। कण-कण करके यह ज्ञान के संग्रह में लगा है, इसी से काण्व भी कहलाया है।
यह प्रभु को ‘ब्रह्मणस्पति' =ज्ञान के पति के रूप में देखता है, और आराधना करता है कि ब्(रह्मणस्पते) = हे ज्ञान के पति प्रभो! आप मुझे (सोमानां स्वरणं कक्षीवन्तम्)= सोम, स्वरण व कक्षीवान् (कृणुहि) = बनाइए | आप मुझे ऐसा बनाइए कि (यः) = जो मैं (औशिजः) = औशिज बनूँ। इस प्रकार मन्त्र में ज्ञान के चार परिणामों का उल्लेख है-
१. (सोमानाम्) =ज्ञान मनुष्य को सोम बनाता है। ज्यूँ-ज्यूँ मनुष्य ज्ञानी बनता जाता है, त्यूँ-त्यूँ वह अधिक और अधिक सौम्य होता जाता है। ('विद्या ददाति विनयम्') = विद्या विनय देती है। (ब्रह्मणा अर्वाङ् विपश्यति) = ज्ञान से मनुष्य नतदृष्टि बनता है।
सोम शब्द ‘सू' धातु से बनकर 'उत्पादन' की भावना को भी व्यक्त करता है। ज्ञानी सदा उत्पादक कार्यों में– निर्माण के कार्यों में रुचिवाला होता है। इसे तोड़-फोड़ रुचिकर नहीं होती।
२. (स्वरणम्) = ' स्वर् to radiate'। यह ज्ञान - प्रकाशनवाला होता है। इससे चारों ओर ज्ञान का प्रकाश फैलता है। इसके समीप रहनेवाले भी इसके ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशमय हो जाते हैं।
३. (कक्षीवन्तम्)=यह ज्ञान मनुष्य को उत्तम कक्ष्यावाला बनाता है। कक्ष्या कमर में बाँधी जानेवाली रस्सी का नाम है। एवं, ज्ञानी कमर में उत्तम रयु को बाँधता है, अर्थात् सदा कमर कसे, पुरुषार्थ के लिए तैयार होता है । क्रियाशीलता ज्ञान का अवश्यम्भावी परिणाम है। ज्ञान शक्ति है और शक्ति क्रिया को पैदा करती है। ('क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः') ब्रह्मज्ञानियों में क्रियाशील सदा श्रेष्ठ होता है।
४. (औशिजः)=यह ज्ञानी उशिक् का पुत्र होता है । उशिक् शब्द 'वश कान्तौ' धातु से बना है। यह सबका भला चाहनेवाला होता है। उशिक् का अर्थ मेधावी भी है। वस्तुतः सबका भला चाहना ही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है।
भावार्थ -
हम ज्ञान प्राप्त करके विनीत, प्रकाश फैलानेवाले, क्रियाशील व सबके प्रिय बनें ।
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