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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 140
ऋषिः - श्रुतकक्षः आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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बो꣡ध꣢न्मना꣣ इ꣡द꣢स्तु नो वृत्र꣣हा꣡ भूर्या꣢꣯सुतिः । शृ꣣णो꣡तु꣢ श꣣क्र꣢ आ꣣शि꣡ष꣢म् ॥१४०॥

स्वर सहित पद पाठ

बो꣡ध꣢꣯न्मनाः । बो꣡ध꣢꣯त् । म꣣नाः । इ꣢त् । अ꣣स्तु । नः । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । भू꣡र्या꣢꣯सुतिः । भू꣡रि꣢꣯ । आ꣣सुतिः । शृणो꣡तु꣢ । श꣣क्रः꣢ । आ꣣शि꣡ष꣢म् । आ꣣ । शि꣡ष꣢꣯म् ॥१४०॥


स्वर रहित मन्त्र

बोधन्मना इदस्तु नो वृत्रहा भूर्यासुतिः । शृणोतु शक्र आशिषम् ॥१४०॥


स्वर रहित पद पाठ

बोधन्मनाः । बोधत् । मनाः । इत् । अस्तु । नः । वृत्रहा । वृत्र । हा । भूर्यासुतिः । भूरि । आसुतिः । शृणोतु । शक्रः । आशिषम् । आ । शिषम् ॥१४०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 140
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि 'श्रुतकक्ष' = ज्ञानरूपी शरणस्थानवाला 'आंगिरस' = रसमय अङ्गोंवाला अर्थात् शक्तिशाली अङ्गोवाला है। वह प्रार्थना करता है कि (नः) = हमारे लिए (शक्रः)=सर्वशक्तिमान् प्रभु (इत्)=निश्चय से (बोधन्मना:) = हमारे मनों को सुबोध करनेवाला (अस्तु) = हो । हमारे मस्तिष्करूपी द्युलोक में ज्ञान का सूर्य चमके। यह चमकता हुआ ज्ञान का सूर्य (वृत्रहा) = वृत्र का हनन करनेवाला हो। हमारे हृदयान्तरिक्ष में कामादि वासनाएँ उत्पन्न होकर ज्ञान को आवृत्त कर देती हैं। ज्ञान को आवृत्त करने के कारण ही इन्हें 'वृत्र' नाम दिया गया है। जैसे आकाश में उदय होकर प्रचण्ड सूर्य अन्तरिक्षस्थ मेघों को छिन्न-भिन्न कर देता है, उसी प्रकार यह ज्ञानरूपी सूर्य वासनारूप वृत्र का विनाश करनेवाला होता है। एवं, जब हमारा विज्ञानमयकोश ज्ञान से जगमगाता है तब वासना - विनाश होने से हमारा मन निर्मल हो उठता है। इस नैर्मल्य के परिणामस्वरूप (भूर्यासुतिः) = हमारा प्राणमयकोश अत्यधिक जीवनी शक्तिवाला होता है [भूरि- बहुत, आसुति:=enlivenment] । वासना ही शक्ति के अपव्यय का कारण हुआ करती है; वासना गई और शक्ति का कोश पूर्ण हुआ।

शक्ति के मद में हम औरों को घृणा से देखते हुए कहीं अपशब्दों का प्रयोग न करने लग जाएँ, अतः मन्त्र में आराधना है कि वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (आशिषम्) = हमसे बोले जाते हुए शुभ शब्दों को ही (शृणोतु) = सुने, अर्थात् हमारी वाणी से कभी अशुभ शब्दों का उच्चारण न हो। ‘आशी:' का अर्थ है——the act of bestowing blesings on others' =औरों के लिए आशीर्वादात्मक शब्द बोलना, अर्थात् हम शक्ति प्राप्त करके शुभ शब्दों का प्रयोग करें। 'श्रुतकक्ष आङ्गिरस' बनने का यही मार्ग है।

भावार्थ -

हमारा जीवन, 'ज्ञान, नैर्मल्य, शक्ति व शुभ वाणी' से अलंकृत हो ।

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