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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 141
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣द्य꣡ नो꣢ देव सवितः प्र꣣जा꣡व꣢त्सावीः꣣ सौ꣡भ꣢गम् । प꣡रा꣢ दुः꣣ष्व꣡प्न्य꣢ꣳ सुव ॥१४१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । नः꣣ । देव । सवितरि꣡ति꣢ । प्र꣣जा꣡व꣢त् । प्र꣣ । जा꣡व꣢꣯त् । सा꣣वीः । सौ꣡भ꣢꣯गम् । सौ । भ꣣गम् । प꣡रा꣢꣯ । दु꣣ष्वप्न्य꣢म् । दुः꣣ । स्व꣡प्न्य꣢꣯म् । सु꣣व ॥१४१॥


स्वर रहित मन्त्र

अद्य नो देव सवितः प्रजावत्सावीः सौभगम् । परा दुःष्वप्न्यꣳ सुव ॥१४१॥


स्वर रहित पद पाठ

अद्य । अ । द्य । नः । देव । सवितरिति । प्रजावत् । प्र । जावत् । सावीः । सौभगम् । सौ । भगम् । परा । दुष्वप्न्यम् । दुः । स्वप्न्यम् । सुव ॥१४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 141
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि 'श्यावाश्व आत्रेय है। 'श्यैङ् गतौ' धातु से श्याव शब्द बना है और अश्व का अर्थ घोड़ा है। इन्द्रियों को वैदिक साहित्य में अश्व से उपमा दी गई है, अतः गतिशील इन्द्रियोंवाला व्यक्ति श्यावाश्व है। यह क्रियाशील व्यक्ति ‘काम, क्रोध, लोभ' से परे रहता है, अतः यह 'अ-त्रि' व आत्रेय कहलाता है – ' जिसमें तीन नहीं हैं।

पिछले मन्त्र में शक्ति सम्पन्न बनने का उल्लेख था। शक्ति प्राप्त करके वह 'श्रुतकक्ष आङ्गिरस’ आज ‘श्यावाश्व' बनता है। यह श्यावाश्व ‘सौभग'- वितजनदम सम्पत्ति प्राप्त करता है। ‘यह सम्पत्ति उसके ह्रास का कारण न बन जाए' इस हेतु वह प्रभु से आराधना करता है कि (देव सवितः) = दानादि दिव्य गुणों से सम्पन्न प्रेरक देव (नः) = हमारे लिए (अद्य) = आज ही (प्रजावत्) = [जनी प्रादुर्भावे] 'प्रकृष्ट प्रादुर्भाव = उच्च विकास से सम्पन्न (सौभगम्) = सम्पत्ति (सावी:)=प्राप्त कराइए । धन से मैं विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय कोशों की वृद्धि के लिए अनुकूल साधनों को जुटाता हुआ अन्नमयकोश के स्वास्थ्य के लिए भी सामग्री का संग्रह करूँ। हे प्रभो! आप देव हैं, देनेवाले हैं। आप तो अपने लिए कुछ भी बचाते नहीं हैं, आपसे प्रेरणा प्राप्त करके मैं भी देनेवाला बनूँ।

हे प्रभो। इस प्रकार मुझे दानवृत्तिवाला बनाकर आप मुझसे (दुःष्वप्न्यम्) = बुरे स्वप्नों के कारणभूत पापों को (परासुव) = दूर कीजिए। यदि मै धन को दान में विनियुक्त न करूँगा तो स्वभावतः विलास व पाप की ओर मेरा झुकाव हो जाएगा और ये पाप मुझे सुख की नींद न सोने देंगे। इनके कारण मैं दुःस्वप्नों को ही देखा करूँगा।
‘दुःस्वप्न्यम्' का अर्थ 'बुरी तरह से सोनेवाली' ' 'अत्यन्त असंज्ञभूत' वृक्षादि योनि का कारण भी है। हम धन प्राप्त करके उन पापों में न फँस जाएँ जो हमें वृक्षादि स्थावर योनि को प्राप्त कराने का कारण बनें।

भावार्थ -

हमारा धन हमारे विकास के लिए हो, न कि विलास और परिणामतः विनाश के लिए।

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