Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 141
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    44

    अ꣣द्य꣡ नो꣢ देव सवितः प्र꣣जा꣡व꣢त्सावीः꣣ सौ꣡भ꣢गम् । प꣡रा꣢ दुः꣣ष्व꣡प्न्य꣢ꣳ सुव ॥१४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । नः꣣ । देव । सवितरि꣡ति꣢ । प्र꣣जा꣡व꣢त् । प्र꣣ । जा꣡व꣢꣯त् । सा꣣वीः । सौ꣡भ꣢꣯गम् । सौ । भ꣣गम् । प꣡रा꣢꣯ । दु꣣ष्वप्न्य꣢म् । दुः꣣ । स्व꣡प्न्य꣢꣯म् । सु꣣व ॥१४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्य नो देव सवितः प्रजावत्सावीः सौभगम् । परा दुःष्वप्न्यꣳ सुव ॥१४१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अद्य । अ । द्य । नः । देव । सवितरिति । प्रजावत् । प्र । जावत् । सावीः । सौभगम् । सौ । भगम् । परा । दुष्वप्न्यम् । दुः । स्वप्न्यम् । सुव ॥१४१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 141
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में प्रेरक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    मन्त्र का देवता इन्द्र होने से मन्त्रोक्त ‘देव’ और ‘सवितः’ उसी के विशेषण हैं। हे (देव) ऐश्वर्यप्रदायक, प्रकाशमय, प्रकाशक, सर्वोपरि विराजमान, (सवितः) उत्तम बुद्धि आदि के प्रेरक इन्द्र परमात्मन् ! (अद्य) आज, आप (नः) हमारे लिए (प्रजावत्) सन्ततियुक्त अर्थात् उत्तरोत्तर बढ़नेवाले (सौभगम्) धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि का धन (सावीः) प्रेरित कीजिए, (दुःष्वप्न्यम्) दिन का दुःस्वप्न, रात्रि का दुःस्वप्न और उनसे होनेवाले कुपरिणामों को (परासुव) दूर कर दीजिए ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा की उपासना से मनुष्य निरन्तर बढ़नेवाले सद्गुणरूप बहुमूल्य धन को और दोषों से मुक्ति को पा लेता है ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (देव सवितः) हे सुखोत्पादक इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मदेव! तू (नः) हमारे लिये (अद्य प्रजावत्-सौभगम्) आज इस जीवन में प्रजावाला मुझे प्रजा के लिए देने योग्य कल्याणरूप ऐश्वर्य (सावीः) अपनी ओर से प्रेरित कर (दुष्वप्न्यं परासुव) अनिष्ट विचार के निमित्तभूत अकल्याण वासना व्यसन को दूर कर।

    भावार्थ

    सुखदाता परमात्मन्! तू हम उपासकों के इसी जीवन में अपनी प्रजा समझ वैसा कल्याण प्रेरित करता—प्रदान करता है और अनिष्ट विचारों के कारणरूप वासना व्यसन को भी हटा देता है। तू ऐसा कृपालु है॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—श्यावाश्वः (बड़े बलवान् प्राण घोड़ों वाला प्राणायामाभ्यासी योगी)॥<br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विकास के अनुकूल सम्पत्ति

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि 'श्यावाश्व आत्रेय है। 'श्यैङ् गतौ' धातु से श्याव शब्द बना है और अश्व का अर्थ घोड़ा है। इन्द्रियों को वैदिक साहित्य में अश्व से उपमा दी गई है, अतः गतिशील इन्द्रियोंवाला व्यक्ति श्यावाश्व है। यह क्रियाशील व्यक्ति ‘काम, क्रोध, लोभ' से परे रहता है, अतः यह 'अ-त्रि' व आत्रेय कहलाता है – ' जिसमें तीन नहीं हैं।

    पिछले मन्त्र में शक्ति सम्पन्न बनने का उल्लेख था। शक्ति प्राप्त करके वह 'श्रुतकक्ष आङ्गिरस’ आज ‘श्यावाश्व' बनता है। यह श्यावाश्व ‘सौभग'- वितजनदम सम्पत्ति प्राप्त करता है। ‘यह सम्पत्ति उसके ह्रास का कारण न बन जाए' इस हेतु वह प्रभु से आराधना करता है कि (देव सवितः) = दानादि दिव्य गुणों से सम्पन्न प्रेरक देव (नः) = हमारे लिए (अद्य) = आज ही (प्रजावत्) = [जनी प्रादुर्भावे] 'प्रकृष्ट प्रादुर्भाव = उच्च विकास से सम्पन्न (सौभगम्) = सम्पत्ति (सावी:)=प्राप्त कराइए । धन से मैं विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय कोशों की वृद्धि के लिए अनुकूल साधनों को जुटाता हुआ अन्नमयकोश के स्वास्थ्य के लिए भी सामग्री का संग्रह करूँ। हे प्रभो! आप देव हैं, देनेवाले हैं। आप तो अपने लिए कुछ भी बचाते नहीं हैं, आपसे प्रेरणा प्राप्त करके मैं भी देनेवाला बनूँ।

    हे प्रभो। इस प्रकार मुझे दानवृत्तिवाला बनाकर आप मुझसे (दुःष्वप्न्यम्) = बुरे स्वप्नों के कारणभूत पापों को (परासुव) = दूर कीजिए। यदि मै धन को दान में विनियुक्त न करूँगा तो स्वभावतः विलास व पाप की ओर मेरा झुकाव हो जाएगा और ये पाप मुझे सुख की नींद न सोने देंगे। इनके कारण मैं दुःस्वप्नों को ही देखा करूँगा।
    ‘दुःस्वप्न्यम्' का अर्थ 'बुरी तरह से सोनेवाली' ' 'अत्यन्त असंज्ञभूत' वृक्षादि योनि का कारण भी है। हम धन प्राप्त करके उन पापों में न फँस जाएँ जो हमें वृक्षादि स्थावर योनि को प्राप्त कराने का कारण बनें।

    भावार्थ

    हमारा धन हमारे विकास के लिए हो, न कि विलास और परिणामतः विनाश के लिए।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( सवितः ) = सब के प्रेरक, उत्पादक, प्रकाशमान् देव, आत्मन् ! ( नः ) = हमारा ( प्रजावत् ) = अपनी प्रजाओं के समान ( सौभगं ) = उत्तम कल्याण ( अद्य ) = आज, प्रतिदिन ( सावी: ) = उत्पन्न कर । ( दुःष्वप्न्यं  ) = चित्त में से दुःसंकल्पों के कारण होने वाले तन्द्राकालिक प्रमाद को ( परा सुव ) = दूर कर। 

    योग के साधनों को करते हुए साधक के आग्रहपूर्वक संयम द्वारा इन्द्रियों का बाह्य निरोध होजाने पर भी मन की पूर्व वासनाएं तन्द्रा के अवसर पर दुःस्वप्नों का कारण होती हैं । उनको दूर करने और शुभ विचारों के प्रबल होने की इस मन्त्र में प्रार्थना है । 

    टिप्पणी

    १४१ - 'अधानो', 'दुःष्वप्न्यं' 'दुष्ष्वप्न्यं' इति ऋ० । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्यावाश्व ।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रेरकं परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    इन्द्रो देवता, देव सवितः इति तद्विशेषणम्। हे (देव) सर्वैश्वर्यप्रद, प्रकाशमय, प्रकाशयितः, सर्वोपरि विराजमान ! देवो दानाद् वा, दीपनाद् वा, द्योतनाद् वा, द्युस्थानो भवतीति वा। निरु० ७।१५। (सवितः) सद्बुद्ध्यादिप्रेरक। यः सुवति प्रेरयति सद्बुद्धिसत्यन्यायदयादिकं स्तोतुर्मनसि स सविता। षू प्रेरणे। इन्द्र परमात्मन् ! (अद्य) अस्मिन् दिने। संहितायां निपातस्य च।’ अ० ६।३।१३६ इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (प्रजावत्) सन्ततियुक्तम्, उत्तरोत्तरं वर्धनशीलमित्यर्थः। (सौभगम्३) धर्मयशःश्रीज्ञानवैराग्यादिधनत्वम्। सुभगस्य भावः सौभगम्। भग इति धननाम। निघं० २।१०। (सावीः) प्रेरय। षू प्रेरणे, छन्दसि लुङ्लङ्लिटः।’ अ० ३।४।६ इति लोडर्थे लुङ्। (दुःष्वप्न्यम्४) दिवादुःस्वप्नं, रात्रिदुःस्वप्नं, तेन निर्वृत्तं कुपरिणामं च। दुःष्वप्नशब्दात् स्वार्थे, निर्वृत्तार्थे वा यत्। दुःस्वप्नं च द्विविधम्, “जा॒ग्र॒द् दुष्व॒प्न्यं स्व॑प्ने दुष्व॒प्न्यम्”। अथ० १६।६।९ इति वचनात्। (परासुव) अपगमय५ ॥७॥

    भावार्थः

    परमेश्वरस्योपासनया मनुष्यः सातत्येन वर्द्धनशीलं सद्गुणरूपं बहुमूल्यं धनं दोषेभ्यो मुक्तिं च प्राप्नोति ॥७॥

    टिप्पणीः

    २. ऋ० ५।८२।४, देवता सविता। ३. सुभगमेव सौभगम्, स्वार्थिकस्तद्धितः—इति वि०। सौभगं सुभगत्वं सुधनत्वम्—इति भ०। ४. दुःष्वप्न्यं दुःस्वप्नं दुःस्वप्नवद् दुःखकरं दारिद्र्यम्—इति सा०। दुष्टेषु स्वप्नेषु भवं दुःखम्—इति ऋ० ५।८२।४ भाष्ये द०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं परमेश्वरपर एव व्याख्यातः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Creator, grant us ever prosperity and progeny, and drive away poverty.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    O generous lord Savita, create for us here and now honour and good fortune full of noble people and progeny. Drive away bad dreams and ward off dreamy ambitions. (Rg. 5-82-4)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (देव सवितः) હે સુખોત્પાદક ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમારા માટે (अद्य प्रजावत् सौभगम्)  આજ આ જીવનમાં પ્રજાવાળા મને પ્રજાને માટે આપવા યોગ્ય કલ્યાણરૂપ ઐશ્વર્ય (सावीः) તારી તરફ પ્રેરિત કર (दुष्वप्न्यं परासुव) અનિષ્ટ વિચારોના કારણરૂપ અકલ્યાણકારી વાસનાવ્યસનને દૂર કર. (૭)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સુખદાતા પરમાત્મન્ - તું અમને ઉપાસકોને આ જીવનમાં તારી પ્રજા માનીને, તેમ કલ્યાણ પ્રેરિત કરીને પ્રદાન કરે છે અને અનિષ્ટ વિચારોના કારણરૂપ વાસના-વ્યસનને પણ દૂર કરે છે, તું એવો કૃપાળુ છે. (૭)

    इस भाष्य को एडिट करें

    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اُتم پَرجا اور سُوبھاگیہ کی پَراپتی

    Lafzi Maana

    (سوِتادیو) سب جگت کو پیدا کرنے والے پرمیشور (ادیہ نہ پرجاوت سؤبھگم ساوی) آج ہی ہم کو اُتم پرجا پُتر آدی کے ساتھ اُتم ایشوریہ، دھن، دولت، مال، خزانہ، دھرم، یش، لکشمی اور گیان کو دیجئے اور (دُش وپینم پراسُو) ہمارے بُرے خیالات، بُرے کام اور دُکھوں کو دُور کر دیجئے!

    Tashree

    سب بُرائیاں دُور ہوں اور دُور پاپ وِچار ہوں، ایسا ہمیں سُوبھاگیہ دوسنتان بھی اُتم بنے۔

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या उपासनेने मनुष्य निरंतर वृद्धी होणाऱ्या सद्गुणरूप बहुमूल्य धन प्राप्त करतो व दोषांपासून सुटका करून घेतो. ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आता प्रेरक परमेश्वराला प्रार्थना केली आहे -

    शब्दार्थ

    मंत्राची देवता इन्द्र असल्यामुळे ङ्गदेवफ आणि वितफ त्याचीच विशेषणें आहेत. (देव) ऐश्वर्यप्रदायक, प्रकाशमय, प्रकाशक, सर्वोपरि विराजमान (सवितः) श्रे ठ बुद्धीची प्रेरणा देणारे हे इन्द्र परमात्मा, (अघ) आज आपण (नः) आम्हाला (आम्हा उपासकांना) (प्रजावत्) सन्त्रती (म्हणजे सारखेपणाने सतत व निरंतर) आणि उत्तरोत्तर वाढत जाणाऱ्या (सौभगम्) धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदी रूप धन प्राप्त करण्याकरिता (सावीः) प्रेरणा देत रहा. (दुःष्वप्न्यम्) दिवसा पडणाऱ्या दुःस्वप्नापासून तसेच रात्री पडणाऱ्या वाईट स्वप्नापासून आणि त्याद्वारे होणाऱ्या वाईट परिणामापासून (परासुव) आम्हाला दूर ठेवा (वा आमच्यापासून कुविचार आणि दुःस्वप्न यांना दूर ठेवा.) ।। ७।।

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या उपासनाद्वारे माणूस सतत वाढत जा़णाऱ्या सद्गुणरूप धन प्राप्त करतो वा करू शकतो आणि दोषांपासून मुक्ती प्राप्त करू शकतो. ।। ७।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    तमिल (1)

    Word Meaning

    சவிதாவான சூரியனே! இன்று எங்களுக்கு பிரசைகளோடு ஐசுவரியத்தை உண்டு பண்ணவும், துக்ககரமான தரித்திரத்தை தூரத்திலாக்கவும்.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top