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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1380
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
यः꣡ स्नीहि꣢꣯तीषु पू꣣र्व्यः꣡ सं꣢जग्मा꣣ना꣡सु꣢ कृ꣣ष्टि꣡षु꣢ । अ꣡र꣢क्षद्दा꣣शु꣢षे꣣ ग꣡य꣢म् ॥१३८०॥
स्वर सहित पद पाठयः । स्नीहितीषु । पूर्व्यः । सञ्जग्मानासु । सम् । जग्मानासु । कृष्टिषु । अरक्षत् । दाशुषे । गयम् ॥१३८०॥
स्वर रहित मन्त्र
यः स्नीहितीषु पूर्व्यः संजग्मानासु कृष्टिषु । अरक्षद्दाशुषे गयम् ॥१३८०॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । स्नीहितीषु । पूर्व्यः । सञ्जग्मानासु । सम् । जग्मानासु । कृष्टिषु । अरक्षत् । दाशुषे । गयम् ॥१३८०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1380
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - ‘गय' की प्राप्ति
पदार्थ -
(यः) = वे प्रभु (स्नीहीतीषु) = [स्नेहकारिणीषु – द०] परस्पर स्नेह करनेवाली (संजग्मानासु) = सदा मिलकर चलनेवाली (कृष्टिषु) = कृषि आदि उत्पादक श्रम करनेवाली प्रजाओं में (पूर्व्यः) = पूरणता को उत्पन्न करनेवालों में उत्तम हैं। प्रभु हमारे जीवनों को पूर्ण बनाते हैं; बशर्ते कि – १. हम परस्पर स्नेहवाले हों, २. मिलकर चलें, ३. कुछ-न-कुछ निर्माण का कार्य अवश्य करें। जिस घर में लोग परस्पर प्रेम से चलते हैं, एक विचार के होकर मिलकर चलते हैं, जहाँ सब पौरुषवाले होकर आलस्य से दूर रहते हैं उस घर पर सदा प्रभु की कृपादृष्टि बनी रहती है।
(दाशुषे) – दानशील और अन्ततोगत्वा प्रभु के प्रति आत्म-समर्पण करनेवाले व्यक्ति के लिए प्रभु (गयम्) = उत्तम सन्तान को [नि० २.१], उत्तम धनों को [नि० ८.१०], उत्तम गृह को [ नि० ३.४] तथा उत्तम प्राणशक्ति को [प्राणा वै गयाः – श० १४.८.१५.७] (अरक्षत्)– प्राप्त कराते हैं । एक दानशील, प्रभु के प्रति समर्पक का जीवन अत्यन्त सुखी, शान्त, समृद्ध व स्वस्थ होता है। ‘जो देता है—प्रभु उसे देते हैं' इस तत्त्व को राहूगण कभी भूलता नहीं।
भावार्थ -
हममें स्नेह, सङ्गति, पुरुषार्थ व दानशीलता हो तो प्रभुकृपा से हमारा जीवन बड़ा फूलता-फलता होगा ।
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