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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 14
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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उ꣡प꣢ त्वाग्ने दि꣣वे꣡दि꣢वे꣣ दो꣡षा꣢वस्तर्धि꣣या꣢ व꣣य꣢म् । न꣢मो꣣ भ꣡र꣢न्त꣣ ए꣡म꣢सि ॥१४॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । अग्ने । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । दो꣡षा꣢꣯वस्तः । दो꣡षा꣢꣯ । व꣣स्तः । धिया꣢ । व꣣य꣢म् । न꣡मः꣢꣯ । भ꣡र꣢꣯न्तः । आ । इ꣣मसि ॥१४॥


स्वर रहित मन्त्र

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ॥१४॥


स्वर रहित पद पाठ

उप । त्वा । अग्ने । दिवेदिवे । दिवे । दिवे । दोषावस्तः । दोषा । वस्तः । धिया । वयम् । नमः । भरन्तः । आ । इमसि ॥१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 14
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

हे (अग्ने! दोषावस्त:)= [वस आच्छादने, छद् अपवारणे] दोषों को समन्तात् अपवारित दूर करनेवाले प्रभो! आप हमारे लिए उस छत के समान हैं जो ओलों आदि से बचाती है; उसी के समान आप सब ओर से आक्रमण करनेवाले दोषों से हमें बचाते हैं। (वयम्)=कर्मतन्तु का विच्छेद न करनेवाले आपके भक्त हम (दिवेदिवे)= प्रतिदिन त्(वा उप)= आपके समीप (धिया)= ज्ञानपूर्वक कर्म से (नमः भरन्तः)= विनय का सम्पादन करते हुए (एमसि)= प्राप्त होते हैं। प्रभु 'दोषावस्त:' हमें सब ओर से सदा दोषों से बचाते हैं, परन्तु उसके लिए हमारा कर्तव्य है कि हम सदा ‘धिया' ज्ञानपूर्वक कर्म में लगे रहें। धी शब्द ज्ञान और कर्म दोनों ही अर्थों का वाचक है। मनुष्य शब्द का निर्वचन भी यास्क ने 'मत्वा (कर्माणि सीव्यति')= ‘सोचकर कर्म करता है'–यह किया है। एवं, धिया शब्द की भावना को अपनाने से ही हम अपने मनुष्य नाम को चरितार्थ करते हैं। हमें “Man proposes and God disposes”, अन्यथा चिन्तितं यत्तु अन्यथैव प्रजायते”, “चाहा कुछ हुआ कुछ" का अनुभव इसी परिणाम पर पहुँचाता है कि संचालक शक्ति कोई और है। ऐसी ही घटनाएँ हमारे अभिमान को तोड़कर हमें नतमस्तक कर देती हैं, और हम विनीत होकर उस प्रभु के समीप उपस्थित होते हैं। हमारा अभिमान गल जाता है और हम आसुर भावनाओं को छोड़कर उत्तम इच्छाओंवाले बनते हुए इस मन्त्र के ऋषि ‘मधुच्छन्दाः' होते हैं। 

भावार्थ -

ज्ञानपूर्वक कर्म ही प्रभु की सच्ची विनय है।

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