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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1405
ऋषिः - सुतंभर आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्ने꣡ स्तोमं꣢꣯ मनामहे सि꣣ध्र꣢म꣣द्य꣡ दि꣢वि꣣स्पृ꣡शः꣢ । दे꣣व꣡स्य꣢ द्रविण꣣स्य꣡वः꣢ ॥१४०५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्नेः꣢ । स्तो꣡म꣢꣯म् । म꣣नामहे । सिध्र꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । दि꣣विस्पृ꣡शः꣢ । दि꣣वि । स्पृ꣡शः꣢꣯ । दे꣣व꣡स्य꣢ । द्र꣣विणस्य꣡वः꣢ ॥१४०५॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्ने स्तोमं मनामहे सिध्रमद्य दिविस्पृशः । देवस्य द्रविणस्यवः ॥१४०५॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्नेः । स्तोमम् । मनामहे । सिध्रम् । अद्य । अ । द्य । दिविस्पृशः । दिवि । स्पृशः । देवस्य । द्रविणस्यवः ॥१४०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1405
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘सुतम्भर' है–यज्ञों का भरण करनेवाला । यह कहता है कि इन यज्ञों के लिए (द्रविणस्यवः) = द्रविण की इच्छावाले हम (अग्ने:) = सबको आगे ले-चलनेवाले (दिविस्पृशः) = सदा ज्ञान के प्रकाशवाले (देवस्य) = दिव्य गुणसम्पन्न प्रभु के (सिध्रम्) = सब मनोरथों को सिद्ध करनेवाले (स्तोमम्) = स्तुतिसमूह को (अद्य) = आज (मनामहे) = [म्ना अभ्यासे] पुन: पुन: उच्चरित करते हैं।

प्रभु का स्मरण हमें यज्ञियवृत्तिवाला बनाता है । इन यज्ञों के लिए ही हम धन की कामना करते हैं । यह धन भी तो हमें उसी प्रभु ने प्राप्त कराना है। धन के द्वारा हम यज्ञशील बनते हैं तो हमारा जीवन उन्नत होता है [अग्नि] हमारे ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है [दिविस्पृक्] तथा हमारा जीवन दिव्य गुणोंवाला होता है [देव] ।

भावार्थ -

हम प्रभु का स्मरण करें, जिससे धन प्राप्त करके हम यज्ञशील जीवनवाले हों।

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