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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1412
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
त꣡मु꣢ त्वा नू꣣न꣡म꣢सुर꣣ प्र꣡चे꣢तस꣣ꣳ रा꣡धो꣢ भा꣣ग꣡मि꣢वेमहे । म꣣ही꣢व꣣ कृ꣡त्तिः꣢ शर꣣णा꣡ त꣢ इन्द्र꣣ प्र꣡ ते꣢ सु꣣म्ना꣡ नो꣢ अश्नवन् ॥१४१२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । उ꣣ । त्वा । नून꣢म् । अ꣢सुर । अ । सुर । प्र꣡चे꣢꣯तसम् । प्र । चे꣢तसम् । रा꣡धः꣢꣯ । भा꣣ग꣢म् । इ꣣व । ईमहे । मही꣢ । इ꣣व । कृ꣡त्तिः꣢꣯ । श꣣रणा꣢ । ते꣣ । इन्द्र । प्र꣢ । ते꣣ । सुम्ना꣢ । नः꣣ । अश्नवन् ॥१४१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु त्वा नूनमसुर प्रचेतसꣳ राधो भागमिवेमहे । महीव कृत्तिः शरणा त इन्द्र प्र ते सुम्ना नो अश्नवन् ॥१४१२॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । उ । त्वा । नूनम् । असुर । अ । सुर । प्रचेतसम् । प्र । चेतसम् । राधः । भागम् । इव । ईमहे । मही । इव । कृत्तिः । शरणा । ते । इन्द्र । प्र । ते । सुम्ना । नः । अश्नवन् ॥१४१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1412
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - हमें प्रभु के 'सुम्न' प्राप्त हों
पदार्थ -
हे (असुर) = प्राणशक्ति देनेवाले प्रभो! [असून् राति] (तम्) = उस– पूर्व मन्त्र में 'यशा' आदि शब्दों से वर्णित (प्रचेत-सम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, (त्वा उ) = आपको ही (नूनम्) = निश्चय से (राध: भागम् इव) = [राधसंसिद्धि, भज=प्राप्ति] संसिद्धि प्राप्त करानेवाले के रूप में (ईमहे) = प्राप्त करने का हम प्रयत्न करते हैं । यदि हम प्रभु को पा लेते हैं तो हमें १. प्राणशक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि वे प्रभु असुर हैं, २. हमें उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है, क्योंकि वे प्रचेतस् हैं, ३. हमें साफल्य प्राप्त होता है, क्योंकि वे तो 'राधानां' पति हैं [राधोभाग् हैं] । =
। हे (इन्द्र) = सर्व शत्रुविदारक प्रभो ! आपका (कृतिः) = यश [नि० ५.२२] (मही इव) = अत्यन्त महान् है । हे प्रभो हम तो (ते शरणा) = तेरी ही शरणागत हैं । शत्रुओं के (कृन्तन) = विदारण से प्राप्त यश ही 'कृत्ति' है । सब शत्रुओं का विदारण करने से प्रभु ही 'इन्द्र' हैं । हम प्रभु की शरण में होंगे तो हमारे शत्रुओं का भी विदारण हो जाएगा ।
हे प्रभो ! हम तो यह चाहते हैं कि ते आपके (सुम्ना) = Hymn=स्तोत्र (नः) = हमें (प्र अश्नुवन्) = प्राप्त हों—हम सदा आपका ही गायन करें, परिणामतः आपकी सुम्न रक्षा [protection] हमें प्राप्त हो और हमारा जीवन सुम्न =joy = आनन्द प्राप्त करे । 'सुम्न' शब्दों के तीनों अर्थ वाक्य को बड़ा सुन्दर बना देते हैं 'हमें स्तुति प्राप्त हो, स्तुति के परिणामरूप 'प्रभु की रक्षा' प्राप्त हो, इसके परिणामरूप जीवन का आनन्द मिले।
भावार्थ -
प्रभु असुर, प्रचेतस् तथा राधोभाग् हैं, उनका यश महान् है, उनकी शरण हमें प्राप्त हो । हम प्रभु के स्तोत्रों का गान करें, उसकी रक्षा तथा आनन्द प्राप्त करें ।
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