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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1412
    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    39

    त꣡मु꣢ त्वा नू꣣न꣡म꣢सुर꣣ प्र꣡चे꣢तस꣣ꣳ रा꣡धो꣢ भा꣣ग꣡मि꣢वेमहे । म꣣ही꣢व꣣ कृ꣡त्तिः꣢ शर꣣णा꣡ त꣢ इन्द्र꣣ प्र꣡ ते꣢ सु꣣म्ना꣡ नो꣢ अश्नवन् ॥१४१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । उ꣣ । त्वा । नून꣢म् । अ꣢सुर । अ । सुर । प्र꣡चे꣢꣯तसम् । प्र । चे꣢तसम् । रा꣡धः꣢꣯ । भा꣣ग꣢म् । इ꣣व । ईमहे । मही꣢ । इ꣣व । कृ꣡त्तिः꣢꣯ । श꣣रणा꣢ । ते꣣ । इन्द्र । प्र꣢ । ते꣣ । सुम्ना꣢ । नः꣣ । अश्नवन् ॥१४१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु त्वा नूनमसुर प्रचेतसꣳ राधो भागमिवेमहे । महीव कृत्तिः शरणा त इन्द्र प्र ते सुम्ना नो अश्नवन् ॥१४१२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । उ । त्वा । नूनम् । असुर । अ । सुर । प्रचेतसम् । प्र । चेतसम् । राधः । भागम् । इव । ईमहे । मही । इव । कृत्तिः । शरणा । ते । इन्द्र । प्र । ते । सुम्ना । नः । अश्नवन् ॥१४१२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1412
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा, राजा और आचार्य को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (असुर) प्रशस्त प्राणोंवाले वा दोषों को दूर करनेवाले परमात्मन्, राजन् वा आचार्य ! (प्रचेतसम्) प्रकृष्ट चित्तवाले (तम् उ त्वा) उन प्रसिद्ध आपसे (नूनम्) निश्चय ही, हम (राधः) दिव्य और भौतिक ऐश्वर्य वा विद्या आदि धन (ईमहे) माँगते हैं, (भागम् इव) जैसे पुत्र पिता से दायभाग माँगता है। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन्, राजन् वा आचार्य ! (ते) आपकी (कृत्तिः) कीर्ति और (शरणा) शरण (मही इव) महती पृथिवी के समान विशाल है। (ते) आपके (सुम्ना) सुख (नः) हमें (अश्नवन्) प्राप्त हों। यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर यशस्वी, शरणप्रदाता, सुखदाता, दोष दूर करनेवाला, प्राणदाता और धनदाता है, वैसे ही राजा और आचार्य को होना चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (असुर-इन्द्र) हे प्रज्ञा के—प्रज्ञान के—प्रकृष्टज्ञान के देनेवाले४ परमात्मन्! (नूनम् तं त्वा प्रचेतसम्-उ) निश्चय अब उस तुझ प्रवृद्ध ज्ञानवाले५—(भागं राधः-इव-ईमहे) भजनीय—सेवनीय धन समान को हम उपासक माँगते हैं—चाहते हैं६ (ते शरणा) तेरा शरण—आश्रय७ हम उपासकों के लिये (मही कृत्तिः-इव) महान् यश, महान् अन्न, महान् घर के समान है८ (ते सुम्ना) तेरे सुखज्ञान कृपा आदि गुण६ या साधुवृत्त—अच्छे गुण धर्म९ (नः प्र-अश्नुवन्) हमें प्राप्त हों॥२॥

    विशेष

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    विषय

    हमें प्रभु के 'सुम्न' प्राप्त हों

    पदार्थ

    हे (असुर) = प्राणशक्ति देनेवाले प्रभो! [असून् राति] (तम्) = उस– पूर्व मन्त्र में 'यशा' आदि शब्दों से वर्णित (प्रचेत-सम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, (त्वा उ) = आपको ही (नूनम्) = निश्चय से (राध: भागम् इव) = [राधसंसिद्धि, भज=प्राप्ति] संसिद्धि प्राप्त करानेवाले के रूप में (ईमहे) = प्राप्त करने का हम प्रयत्न करते हैं । यदि हम प्रभु को पा लेते हैं तो हमें १. प्राणशक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि वे प्रभु असुर हैं, २. हमें उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है, क्योंकि वे प्रचेतस् हैं, ३. हमें साफल्य प्राप्त होता है, क्योंकि वे तो 'राधानां' पति हैं [राधोभाग् हैं] । =

    । हे (इन्द्र) = सर्व शत्रुविदारक प्रभो ! आपका (कृतिः) = यश [नि० ५.२२] (मही इव) = अत्यन्त महान् है । हे प्रभो हम तो (ते शरणा) = तेरी ही शरणागत हैं । शत्रुओं के (कृन्तन) = विदारण से प्राप्त यश ही 'कृत्ति' है । सब शत्रुओं का विदारण करने से प्रभु ही 'इन्द्र' हैं । हम प्रभु की शरण में होंगे तो हमारे शत्रुओं का भी विदारण हो जाएगा ।

    हे प्रभो ! हम तो यह चाहते हैं कि ते आपके (सुम्ना) = Hymn=स्तोत्र (नः) = हमें (प्र अश्नुवन्) = प्राप्त हों—हम सदा आपका ही गायन करें, परिणामतः आपकी सुम्न रक्षा [protection] हमें प्राप्त हो और हमारा जीवन सुम्न =joy = आनन्द प्राप्त करे । 'सुम्न' शब्दों के तीनों अर्थ वाक्य को बड़ा सुन्दर बना देते हैं 'हमें स्तुति प्राप्त हो, स्तुति के परिणामरूप 'प्रभु की रक्षा' प्राप्त हो, इसके परिणामरूप जीवन का आनन्द मिले।

    भावार्थ

    प्रभु असुर, प्रचेतस् तथा राधोभाग् हैं, उनका यश महान् है, उनकी शरण हमें प्राप्त हो । हम प्रभु के स्तोत्रों का गान करें, उसकी रक्षा तथा आनन्द प्राप्त करें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (असुर) प्राणों में रमण करने हारे आत्मन् ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् (तं) पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त पूर्वप्रसिद्ध (प्रचेतसं) प्रकृष्ट उत्तम ज्ञानवान् (त्वा उ) तुझ से ही हम (राधः) आराधना करने योग्य ज्ञान को (भागम् इव) अन्न के समान (ईमहे) याचना करते हैं । हे (इन्द्र) आत्मन् ! (ते) तेरी (कृत्तिः) कीर्ति ही (मही) बड़ी भारी (शरणा इव) शरण रक्षा के समान है (ते) तेरे से (सुस्नानि) प्राप्त होने योग्य समस्त सुखसाधन (नः) हमें (अश्नुवन्) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    ‘सुम्नानो अश्नवन्’ इति च ऋ०। ‘पूर्वनुत्त’ इति अजमेरमुद्रितः प्रामादिकः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्मानं नृपतिमाचार्यं चाह।

    पदार्थः

    हे (असुर) प्रशस्तप्राणवन् दोषाणां प्रक्षेप्तर्वा परमात्मन् नृपते आचार्य वा ! [असुशब्दात् प्रशस्तार्थे मत्वर्थीयो रः। यद्वा अस्यति प्रक्षिपति दोषादीनि यः सः। ‘असेरुरन्’ उ० १।४२ इति अस्यतेः उरन् प्रत्ययः।] (प्रचेतसम्) प्रकृष्टचित्तम् (तम् उ त्वा) तं प्रसिद्धं त्वाम् (नूनम्) निश्चयेन वयम् (राधः) दिव्यं भौतिकं च ऐश्वर्यम् विद्यादिधनं वा (ईमहे) याचामहे। [ईमहे याच्ञाकर्मा। निघं० ३।१९।] कथम् ? (भागम् इव) यथा पुत्रः पितुः सकाशात् दायांशं याचते तथा। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् नृपते आचार्य वा ! (ते) तव (कृत्तिः) कीर्तिः। [कृत्तिः कृन्ततेः यशो वा अन्नं वा। निरु० ५।२२।] (शरणा) शरणं च। [सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इति सोराकारादेशः।] (मही इव) महती पृथिवीव विशाला वर्तते। (ते) तव (सुम्ना) सुम्नानि सुखानि (नः) अस्मान् (अश्नवन्) प्राप्नुवन्तु ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरो यशस्वी शरणप्रदाता सुखदाता दोषापहारकः प्राणदायको धनदश्चास्ति तथैव नृपतिनाऽऽचार्येण च भाव्यम् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, we verily pray unto Thee, most Wise, craving Thy bounty as our share, as a son to his father. Thy pory is really a great shelter. May Thy favours reach unto us!

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    Meaning

    Indra, lord of vibrant energy and power, we look forward to you as our partner, enlightened ruler and master, and competent giver of reward for our action and endeavour. Your very presence is our shelter, a very home like the great mother earth, and we pray we may ever enjoy the favour of your good will and benevolence. (Rg. 8-90-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (असुर इन्द्र) હે પ્રજ્ઞાના-પ્રજ્ઞાનના-પ્રકૃષ્ટ જ્ઞાનના આપનાર પરમાત્મન્ ! (नूनम् तं त्वा प्रचेतसम् उ) નિશ્ચય હવે તે તારા પ્રવૃદ્ધ જ્ઞાનવાળા, (भागं राधः इव ईमहे) ભજનીય-સેવનીય ધન સમાનને અમે ઉપાસકો માગીએ છીએ-ઇચ્છીએ છીએ. (ते शरणा) તારા શરણ-આશ્રય અમારે ઉપાસકોને માટે (मही कृत्तिः इव) મહાન યશ, મહાન અન્ન, મહાન ઘરની સમાન છે. (ते सुम्ना) તારા સુખ, શાન, કૃપા આદિ ગુણ અથવા સાધુ વૃત-સારા ગુણ ધર્મ (नः प्र अश्नुवन्) અમને પ્રાપ્ત થાય. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर यशस्वी, शरणप्रदाता, सुखदाता दोष निवारक, प्राणदाता, धनदाता आहे, तसेच राजा व आचार्यही असावेत. ॥२॥

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