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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1437
ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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घृ꣣तं꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या य꣣ज्ञे꣡षु꣢ देव꣣वी꣡त꣢मः । अ꣣स्म꣡भ्यं꣢ वृ꣣ष्टि꣡मा प꣢꣯व ॥१४३७॥

स्वर सहित पद पाठ

घृ꣣त꣢म् । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । दे꣣ववी꣡त꣢मः । दे꣣व । वी꣡त꣢꣯मः । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । वृ꣣ष्टि꣢म् । आ । प꣣व ॥१४३७॥


स्वर रहित मन्त्र

घृतं पवस्व धारया यज्ञेषु देववीतमः । अस्मभ्यं वृष्टिमा पव ॥१४३७॥


स्वर रहित पद पाठ

घृतम् । पवस्व । धारया । यज्ञेषु । देववीतमः । देव । वीतमः । अस्मभ्यम् । वृष्टिम् । आ । पव ॥१४३७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1437
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

आर्यसंस्कृति में वृष्टि और यज्ञ में कार्य-कारण सम्बन्ध समझा जाता है । ('यज्ञात् भवति पर्जन्यः') यज्ञ से पर्जन्य [बादल] बनकर वृष्टि होती है। ('अग्निहोत्रं स्वयं वर्षम्'), यह कोशवाक्य अग्निहोत्र से वृष्टि होने को स्वयंसिद्ध [axiom] के समान मानता है, अत: 'कविर्भार्गव' प्रभु से प्रार्थना करता है—हे प्रभो ! (देववीतमः) = हमारे लिए दिव्य गुणों को अत्यन्त [तम] चाहते हुए [वी] आप (यज्ञेषु) = यज्ञों में (धारया) = धारण के उद्देश्य से (घृतम्) = घृत को (पवस्व) = क्षरित कीजिए । मनुष्य जब स्वार्थ की ओर चलता है तब उसकी विचारधारा यह होती है कि यज्ञों में डालने के स्थान में— अग्नि में स्वाहा करने के स्थान पर मैं उतने घृत को अपने शरीर में डालकर पुष्टि व आनन्द का लाभ क्यों न करूँ? इस मनोवृत्ति से यज्ञों के अभाव में मनुष्य अधिकाधिक स्वार्थी व कृपण बनता जाता है। केवल अपने लिए पकानेवाला मानो पाप का ही भक्षण करता है ('केवलाघो भवति केवलादी'–) यह केवलादी शुद्ध पाप बन जाता है— पाप का पुतला हो जाता है। इसके जीवन से दिव्य गुणों का उन्मूलन हो जाता है । दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए यज्ञिय वातावरण आवश्यक है।

हे प्रभो ! इन यज्ञों के होने पर आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (वृष्टिम्) = वृष्टि को (आपव) = क्षरित कीजिए ।

भावार्थ -

हम यज्ञ करें, प्रभु वृष्टि करें ।

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