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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1444
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ब꣣भ्र꣢वे꣣ नु꣡ स्वत꣢꣯वसेऽरु꣣णा꣡य꣢ दिवि꣣स्पृ꣡शे꣢ । सो꣡मा꣢य गा꣣थ꣡म꣢र्चत ॥१४४४॥

स्वर सहित पद पाठ

ब꣣भ्र꣡वे꣢ । नु । स्व꣡त꣢꣯वसे । स्व । त꣣वसे । अरुणा꣡य꣢ । दि꣣विस्पृ꣡शे꣢ । दि꣣वि । स्पृ꣡शे꣢꣯ । सो꣡मा꣢꣯य । गा꣣थ꣢म् । अ꣣र्चत ॥१४४४॥


स्वर रहित मन्त्र

बभ्रवे नु स्वतवसेऽरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥१४४४॥


स्वर रहित पद पाठ

बभ्रवे । नु । स्वतवसे । स्व । तवसे । अरुणाय । दिविस्पृशे । दिवि । स्पृशे । सोमाय । गाथम् । अर्चत ॥१४४४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1444
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि'अ-सित' विषयों से अबद्ध 'काश्यप'=पश्यक, तत्त्वद्रष्टा 'देवल' - दिव्य गुणों का उपादान करनेवाला है। ‘वह ऐसा कैसे बन पाया है ?' इस बात का रहस्य प्रस्तुत मन्त्र में इस रूप में वर्णित है कि यह 'सदा प्रभु का स्मरण करता है ।' यह कहता है कि

(नु गाथं अर्चत) = अब स्तुतिसमूह का उच्चारण करो - स्तोत्रों के द्वारा प्रभु का गायन करो - उसके नामों का सतत उच्चारण करो – उसी के नामों के अर्थ का चिन्तन करो । किसके लिए१. (बभ्रवे) = सबका भरण-पोषण करनेवाले के लिए। जो प्रभु सभी का भरण-पोषण करते हैं— नास्तिकों के भी निवास का हेतु हैं [अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति]।

२. (स्वतवसे) = अपने बलवाले के लिए। प्रभु की शक्ति नैमित्तिक नहीं – उनकी शक्ति स्वाभाविक है [स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च]। वे संसार में सभी को शक्ति प्राप्त करा रहे हैं— प्रभु को शक्ति प्राप्त करानेवाला कोई दूसरा नहीं है ।

३. (अरुणाय) = [अरुणः आरोचतः – नि० ५. २०] सर्वतो दीप्तिमान् के लिए। देदीप्यमान हैं। उस प्रभु की दीप्तियाँ ही सर्वतः चमक रही हैं। प्रभु सर्वतः

४. (दिविस्पृशे) = [विद्याप्रकाशयुक्ताय – द० य० ३३.८५] ज्ञान के प्रकाश से युक्त के लिए । वे प्रभु ज्ञानस्वरूप हैं— उनका ज्ञान प्रकाश ही ज्ञानियों के हृदयों को ज्ञान की ज्योति से दीप्त कर रहा है।

५. (सोमाय) = शान्तस्वरूप के लिए । वे प्रभु ज्ञानाग्नि से दीप्त होते हुए भी शान्तस्वरूप हैं। ज्ञानाग्नि वस्तुतः हृदय की शान्ति को जन्म देती है ।

इस प्रकार प्रभु के स्तवन से ही स्तोता ‘असित' विषयों से अबद्ध होकर ‘देवल'=दिव्य गुणोंवाला बनता है ।

भावार्थ -

हम 'बभ्रु, स्वतवान्, अरुण, दिविस्पृक्, सोम' का गायन करें । 

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