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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1446
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣢म꣣से꣡दुप꣢꣯ सीदत द꣣ध्ने꣢द꣣भि꣡ श्री꣢णीतन । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रे꣢ दधातन ॥१४४६॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣡म꣢꣯सा । इत् । उ꣡प꣢꣯ । सीदत । दध्ना꣢ । इत् । अ꣣भि꣢ । श्री꣣णीतन । श्री꣣णीत । न । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । द꣣धातन । दधात । न ॥१४४६॥


स्वर रहित मन्त्र

नमसेदुप सीदत दध्नेदभि श्रीणीतन । इन्दुमिन्द्रे दधातन ॥१४४६॥


स्वर रहित पद पाठ

नमसा । इत् । उप । सीदत । दध्ना । इत् । अभि । श्रीणीतन । श्रीणीत । न । इन्दुम् । इन्द्रे । दधातन । दधात । न ॥१४४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1446
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे मनुष्यो ! तुम १. (नमसा इत्) = निश्चय से नमन के द्वारा (उपसीदत) = प्रभु के समीप स्थित होओ। मनुष्य जितना - जितना अहंकारवाला होता है, उतना-उतना प्रभु से दूर होता जाता है, नम्रता उसे प्रभु के समीप प्राप्त कराती है ।

२. (दध्ना इत्) = [इन्द्रियं वै दधि – तै० २.१.५.६] अपनी सब इन्द्रियों से ही (अभि श्रीणीतन)= प्रभु की भावना को अपने में परिपक्व करो [ श्रीणन् = परिपक्वं कुर्वन् । – द० ऋ० १.६८.१] अथवा इन्द्रियों के द्वारा उस प्रभु का ही आश्रय करो [श्रीणान:=आश्रयकुर्वाण:- - द० य० ३३.८५ ] । हम अपनी इन्द्रियों को विषयों से विनिवृत्त कर – मन द्वारा उनका निरोध करके और मन को बुद्धि के द्वारा निरुद्ध कर प्रभु का सेवन करें – प्रभु की भावना को अपने में परिपक्व करें ।

३. (इन्द्रे) = ई - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के निमित्त ही (इन्द्रम्) = सोम को (दधातन) = अपने अन्दर धारण करो । सोम के पान से, उसे अपने अन्दर सुरक्षित रखने से मनुष्य की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है— बुद्धि सूक्ष्म बनती है और इस सूक्ष्म बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है ('दृश्यते त्वग्यया बुद्धया ।')

भावार्थ -

हममें नमन हो, इन्द्रिय-वृत्तियाँ प्रभु-प्रवण हों और सोमपान के द्वारा हम अपने को प्रभु-दर्शन के योग्य बनाएँ ।

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