Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1452
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
2

स꣢ न꣣ इ꣡न्द्रः꣢ शि꣣वः꣡ सखाश्वा꣢꣯व꣣द्गो꣢म꣣द्य꣡व꣢मत् । उ꣣रु꣡धा꣢रेव दोहते ॥१४५२॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । इन्द्रः । शि꣡वः꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । अ꣡श्वा꣢꣯वत् । गो꣡म꣢꣯त् । य꣡व꣢꣯मत् । उ꣣रु꣡धा꣢रा । उ꣣रु꣢ । धा꣣रा । इव । दोहते ॥१४५२॥


स्वर रहित मन्त्र

स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत् । उरुधारेव दोहते ॥१४५२॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । नः । इन्द्रः । शिवः । सखा । स । खा । अश्वावत् । गोमत् । यवमत् । उरुधारा । उरु । धारा । इव । दोहते ॥१४५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1452
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment

पदार्थ -

'सुकक्ष आङ्गिरस' के हृदयाकाश में प्रभुरूप सूर्य का उदय होता है । इस सूर्योदय से उसका मानस-गगन दीप्त हो उठता है। अन्धकार की इतिश्री होकर वहाँ प्रकाश-ही- प्रकाश होता है । इसी बात को यहाँ इन शब्दों में कहते हैं कि -

(सः इन्द्रः) = वह अन्धकार का विदारण करनेवाला प्रभु (नः) = हमारा (शिवः) = कल्याण करनेवाला (सखा) = मित्र है । वह (उरुधारा इव) = दुग्ध की विशाल धारा को देनेवाली गौ [Giving a broad stream of milk, as a cow] के समान ज्ञान की धारा को (दोहते) = हममें प्रपूरित करता है [दुह् प्रपूरणे] जो ज्ञानधारा १. (अश्वावत्) = उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाली है [अश्व-कर्मेन्द्रियाँ; कर्मों में व्याप्त होती हैं, अश् व्याप्तौ] । ज्ञान की धारा कर्मेन्द्रियों को निर्मल कर देती हैं। ज्ञानाग्नि कर्मों के मैल को भस्म कर देती है । २. (गोमत्) = यह ज्ञानधारा उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाली है [गाव: ज्ञानेन्द्रियाणि–गमयन्ति अर्थान्] ज्ञानधारा ज्ञानेन्द्रियों को उसी प्रकार उज्ज्वल कर देती हैं जैसे सान पर घिसने से मणि चमक उठती है। ३. (यवमत्) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] यह ज्ञानधारा हमारे मनों को भद्र से जोड़नेवाली होती है और अभद्र से पृथक् करनेवाली होती है ।

भौतिक दृष्टि से यह शब्दार्थ भी हो सकता है कि वे प्रभु हमें वह धन प्राप्त कराते हैं जो घोड़ों, गौवों व यवादि अन्नोंवाला है, परन्तु इस अर्थ को यहाँ इसलिए आदृत नहीं किया गया कि 'सूर्योदय' के प्रकरण में ज्ञान की धारा ही अधिक सङ्गत है । वह ज्ञानधारा ही सुकक्ष की शरण बनती है और उसे विषयविनिवृत्त करके 'आङ्गिरस' बना देती है। 
 

भावार्थ -

हमारा मित्र प्रभु हमें वह ज्ञान प्राप्त कराये जो कर्मेन्द्रियों को प्रशान्त करता है, ज्ञानेन्द्रियों को उज्ज्वल बनाता है और मन को पाप से पृथक् करके पुण्य में प्रवृत्त करता है।

इस भाष्य को एडिट करें
Top